Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 645
________________ ३० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पहली दलीलके बारेमें यही कहूँगा कि जैन हिन्दू रहे है और रहेंगे । जैनियोंका हित इसीमें है कि वे एक स्वरसे अपने आपको हिन्दू घोषित करें । जैनियोंका यह भय बिलकुल निराधार है कि हिन्दू शब्द वैदिक संस्कृतिपरक होनेके कारण जैन संस्कृति केवल वैदिक संस्कृतिकी शाखा मात्र रह जाती है। वास्तवमें "हिन्दू शब्द वैदिक संस्कृतिपरक है" यह बात असत्य है। अब तक वैदिकों और जैनोंके परस्पर जो सामाजिक सम्बन्ध बने चले आ रहे हैं उन्हें और अधिक सुदृढ़ करनेकी आवश्यकता है और ऐसा होनेपर भी यह तो सर्वथा असंभव है कि ईश्वरकर्तृत्ववाद तथा वर्णाश्रमव्यवस्थाको लेकर परस्पर पूर्व और पश्चिम जैसा मौलिक भेद रखनेवाली वैदिक और जैन संस्कृतियोंमेसे एक संस्कृतिको दूसरी संस्कृतिकी शाखामात्र मान लिया जायगा । भारतीय राज्यके असाम्प्रदायिक राज्य घोषित हो जानेपर ऐसा होना और भी असंभव है। दूसरी दलीलका बहुत कुछ उत्तर ऊपर दिया जा चका है। विशेष यह कि "एक भी हरिजन जैनधर्मका माननेवाला नहीं है" यह जैन समाजके लिये शोभाकी चीज नहीं है। इससे तो जैन समाजकी कट्टर अनुदारता ही प्रकट होती है और इसीका यह परिणाम है कि जैनोंकी संख्या अंगलियोंपर गिनने लायक रह गई है। दूसरी बात यह है कि यदि कदाचित् कोई हरिजन जैनधर्ममें आज दीक्षित होनेको तैयार हो तो जैन लोग अपनी मर्जीसे उसे मंदिरके अन्दर जाने देने व पूजा करनेकी इजाजत देनेको कहाँ तैयार है ? जिससे इस दलीलके आधारपर जैन मन्दिरोंको हरिजनमंदिरप्रवेश बिलसे अलग कराकर हरिजनको जैन मंदिरमें न आने देनेकी अपनी चतुराईको जैन समाज सफल बना सके । हरिजन जैनमंदिरमें प्रवेश न करें, यदि हमारी ऐसी इच्छा है, तो इसका एक ही उपाय हो सकता है कि अजैन मात्रको जैन-मंदिरमें न आने दिया जाय, परन्तु जैन समाजका एक भी व्यक्ति यहाँ तक कि जैन मन्दिरमें हरिजनोंके प्रवेशका विरोधी भी इतना मूर्ख नहीं हो सकता है जो यह कहनेको तैयार हो कि जैन मन्दिरमें कोई भी अजैन प्रवेश पानेका अधिकारी नहीं है। इसलिए जैन समाजको चाहिए कि बिलकी मन्शाके मुताबिक वह अजन हरिजनोंको भी दूसरे अजनोंकी तरह जैन मन्दिरमें उदारतापूर्वक आनेकी इजाजत दे दे । तीसरी दलीलके बारेमें मैं इतना ही कहँगा कि यदि जनता स्वयं अपने अन्दरसे राष्ट्रीयताके घातक तत्त्वोंको निकाल दे तो निश्चय ही शासनको इसके लिए कानून बनानेकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु दुर्भाग्यसे जनतामें अभी इतनी जागृत ही कहाँ पैदा हुई है ? इसलिए छोटी-छोटी बातोंके लिये भी कानून बनानेमें बड़ी मजबूतीके साथ सरकारको अपनी अमूल्य शक्ति खर्च करनी पड़ रही है। रही धार्मिक बातोंमें शासनके हस्तक्षेपकी बात, सो इसके बारेमें यही कहा जा सकता है कि जो तत्त्व राष्ट्रीयताका घातक है वह धर्मक्षेत्रकी मर्यादामें कभी भी नहीं आ सकता है। कुछ लोग बिना सोचे समझे यह कहा करते हैं कि जैन भाइयोंने देशको स्वतंत्र कराने में कांग्रेसको अपने त्याग और बलिदान द्वारा जो सहयोग दिया है उसका पुरस्कार जैनियोंको उनके धार्मिक अधिकारोंका अपहरण करके दिया जा रहा है। मैं ऐसे लोगोंसे पूछता हूँ कि यदि जैन भाई देशकी स्वतंत्रताके लिए कांग्रेसके साथ लड़ाईमें सम्मिलित न होते तो क्या देशद्रोहका काम उन्हें शोभा दे सकता था? और जैनोंके योग न देनेसे क्या देशको स्वतन्त्रता मिलना कठिन हो जाता ? इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर 'हाँ' मैं देना जैन समाजके किसी भी व्यक्तिके लिए कठिन ही नहीं, असंभव है। मैं तो यह कहता है कि उक्त प्रकारके शासनके बारेमें आक्षेप करना समस्त जैन समाजको कलंकित करनेके सिवाय और कुछ नहीं है। आशा है जैन बन्धु इसपर विचार कर समुचित मार्ग अपनायेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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