Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 599
________________ ४२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ एक सम्मेलन हआ था। उसमें प्रभावक ढङमें हए निर्णयसे आशा बँधती है कि उससे लाभ होगा। वे महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। जिन्होंने श्रीमहावीरजीके सम्मेलनका आयोजन किया और उसे सफल बनाया । इन्दौरमें तेरहपंथ और बीसपंथका संघर्ष सुनने में आया है तथा कतिपय स्थानोंपर सोनगढ़से नियंत्रित मुमुक्षुमण्डलों और पुरातन समाजके बीच भी संघर्ष सुननेमें आये हैं । यह बड़े दुःखकी बात है । ऐसी घटनाओंसे समाज कलंकित होती है। मैं समझता हूँ कि धर्मके संरक्षण अथवा प्रचारके लिये कषायपूर्ण संघर्ष होना धर्मके ही महत्त्वको कम करते हैं । इसलिये परस्पर-विरोधी आस्था रखनेवाले व्यक्तियोंको केवल धर्माराधनपर ही दृष्टि रखना चाहिये, उनका कल्याण उसीमें है। इस प्रसंगमें एक बातमें यह कहना चाहता हूँ कि समाजमें विद्यमान सहनशीलताके अभावसे ही प्रायः ऐसे या अन्य प्रकारके सामाजिक संघर्ष हआ करते हैं। इसलिये हमारी सामाजिक संस्थाओंको अपनी स्थिति इतनी सुदृढ़ बनानी चाहिये, ताकि वे सहनशीलताको अपना सकें व समाजको संगठित कर सकें। श्री सम्मेदशिखरजी तीर्थक्षेत्रके विषयमें विहार सरकार और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाजके मध्य जो इकरार हआ है उससे दिगम्बर समाजके अधिकारोंका हनन होता है । अतः इस इकरारको समाप्त करवानेका जो प्रयत्न अ०भा० तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा किया जा रहा है वह स्तुत्य है। इसमें सन्देह नहीं कि उक्त कमेटीने गतवर्ष समाजमें श्रीसम्मेदशिखरजी तीर्थक्षेत्र की रक्षा करने के लिये जो चेतना जाग्रत की, उसके कारण वह अत्यन्त प्रशंसाको पात्र है। परन्तु अब वह क्या कर रही है, इसकी जानकारी समाचारपत्रों द्वारा होते रहना चाहिए। हम मानते हैं कि तीर्थक्षेत्र कमेटीके सामने कार्यको तत्परतापूर्वक सम्पन्न करने में कुछ कठिनाईयाँ सम्भव हैं और हम उसके पदाधिकारियोंको यह विश्वास दिला देना चाहते हैं कि समाजको कमेटीके ऊपर । है, फिर भी उससे हमारा अनुरोध है कि समाजमें क्षेत्रके विषयमें जो चिन्ता और बेचैनी हो रही है उसको ध्यानमें रखते हुए वह यथासम्भव अधिक-से-अधिक तत्परतापूर्वक समस्याको सन्तोषप्रद ढंगसे शासनसे शीघ्र हल करवाने का प्रयत्ल करे । 'सरिता' पत्रमें जैनसंस्कृतिके विरुद्ध "कितना महंगा धर्म" शीर्षकसे प्रकाशित लेखसे जैन समाजका क्षुब्ध होना स्वाभाविक है । लेखका लेखक और पत्रका सम्पादक दोनों यदि यह समझते हों कि उन्होंने उत्तमकार्य किया है तो यह उनकी आत्मवञ्चना ही सिद्ध होगी। इसका जैसा प्रतिरोध जैन समाजकी तरफसे किया गया है या किया जा रहा है वह तो ठीक है परन्तु जैन समाज और उसकी साधुसंस्थाको संस्कृतिके वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्त्व व उसकी उपयोगिताकी लोकको जानकारी देने के लिये संस्कृतिके अनुकूल कुछ विधायक कार्यक्रम भी अपनाना चाहिये। वाराणसीमें विद्वत्परिषद्को कार्यकारिणीको बैठकके अवसरपर ऐसी चर्चा उठी थी कि विद्वत्परिषद्के उददेश्य और कार्यक्रमके साथ भारतीय जैन साहित्यसंसद्के उद्देश्य और कार्यक्रमका सुमेल बैठता है, अतः क्यों न उसे विद्वत्परिषदके अन्तर्गत स्वीकार कर लिया जाय ? इस चर्चाको यदि सार्थकरूप दिया जा सके तो मेरे ख्यालसे सांस्कृतिक लाभकी दृष्टिसे यह अत्यधिक उत्तम बात होगी। मैं पुनः विद्वत्परिषद् और शास्त्रिपरिषद्के एकीकरणकी बातको दुहराता हैं और कहना चाहता है कि इसके लिये यदि विद्वत्परिषद्को पहल भी करना पड़े तो करना चाहिये। श्रीमहावीरजीमें हुए सम्मेलनसे निर्मित वातावरण इस एकीकरणके लिए सहायक हो सकता है। इसके अलावा मेरा दृष्टिकोण अब भी यह बना हुआ है कि विद्वत्परिषद्का एक सांस्कृतिक पत्र अवश्य होना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656