Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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ऋषभदेवसे वर्तमान तक जैनधर्मकी स्थिति
प्रायः धर्मकी सभी मान्यताओंमें अमर्यादित कालको मर्यादित अनन्तकल्पोंके रूपमें विभक्त किया गया है, लेकिन किन्हीं-किन्हीं मान्यताओंमें जहाँ इस दृश्यमान् जगत्की अस्तित्त्वस्वरूप और अभावस्वरूप प्रलयको आधार मानकर एक कल्पकी सीमा निर्धारित की गई है, वहाँ जैन मान्यतामें प्राणियोंके दुःखके साधनोंकी क्रमिक हानि होते-होते सुखके साधनोंकी क्रमिक वद्धिस्वरूप उत्सर्पण और प्राणियोंके सूखके साधनोंको क्रमिक हानि होते-होते दुःखके साधनोंको क्रमिक वृद्धिस्वरूप अवसर्पणको आधार मानकर एक कल्पकी सीमा निर्धारित की गई है।
तात्पर्य यह कि धर्मकी किन्हीं-किन्हीं जैनेतर मान्यताओंके अनुसार उनके माने हुए कारणों द्वारा पहले तो यह जगत् उत्पन्न होता है और पश्चात् यह विनष्ट हो जाता है। उत्पत्तिके अनन्तर जबतक जगत्का सद्भाव बना रहता है उतने कालका नाम सृष्टिकाल और विनष्ट हो जानेपर जबतक उसका अभाव रहता है उतने कालका नाम प्रलयकाल माना गया है। इस तरहसे एक सृष्टिकाल और उसके अनन्तर होनेवाले एक प्रलयकालको मिलाकर इन मान्यताओंके अनुसार एक कल्पकाल हो जाता है । जैन मान्यतामें इन मान्यताओंको तरह जगत्का उत्पाद और विनाश नहीं स्वीकार किया गया है। जैन मान्यतामें जगत तो अनादि और अनिधन है, परन्तु रात्रिके बारह बजेसे अन्धकारका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दिनके बारह बजे तक प्रकाशकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिके समान जैन मान्यतामें जितना' काल जगत्के प्राणियोंके दुःखके साधनोंका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते सुखके साधनोंकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिस्वरूप उत्सर्पणका बतलाया गया है उतने कालका नाम उत्सर्पिणीकाल और दिनके बारह बजेसे प्रकाशका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते रात्रिके बारह बजे तक अन्धकारकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिके समान वहाँपर (जैन मान्यतामें) जितनाकाल२ जगत्के प्राणियोंके सुखके साधनोंका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दुःखके साधनोंकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिस्वरूप अवसर्पणका बतलाया गया है उतने कालका नाम अवसर्पिणीकाल स्वीकार किया गया है। एक उत्सर्पिणीकाल और उसके अनन्तर होनेवाले एक अवसर्पिणीकालको मिलाकर जैन मान्यताका एक कल्पकाल हो जाता है। चूँकि उक्त दूसरी मान्यताओंमें सष्टिकाल और प्रलयकालकी परम्पराको पूर्वोक्त सृष्टिके बाद प्रलय और प्रलयके बाद सृष्टिके रूपमें तथा जैनमान्यतामें उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकालको परम्पराको पूर्वोक्त उत्सर्पणके बाद अवसर्पण और अवसर्पणके बाद उत्सर्पणके रूपमें अनादि अनन्त स्वीकार किया गया है, इसलिए उभय मान्यताओंमें (जैन और जैनेतर मान्यताओंमें) कल्पोंकी अनन्तता समानरूपसे मान ली गई है।
जैन मान्यतामें प्रत्येक कल्पके उत्सपिणी काल और अवसर्पिणी कालको उत्सर्पण और अवसर्पणके खंड करके निम्नलिखित छह-छह विभागोंमें विभक्त कर दिया गया है-(१) दुःषम-दुःषमा (अत्यन्त दुःखमय
यह काल जैन ग्रन्थोंके आधारपर दश कोटी-कोटी सागरोपमसमयप्रमाण है। कोटी (करोड़)को कोटी (करोड़)से गुणा कर देनेपर कोटी-कोटीका प्रमाण निकलता है और सागरोपम जैनमान्यताके अनुसार
असंख्यात वर्षप्रमाण कालविशेषकी संज्ञा है। २. यह काल भी जैन ग्रन्थोंमें दश कोटी-कोटी सागरोपमसमयप्रमाण ही बतलाया गया है ३. आदिपुराण पर्व ३, श्लोक १४-१५ । ४, इक्कीस हजार वर्षप्रमाण ।
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