Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
उद्देश्यकी सिद्धि में जब बाह्य सामग्रीका कोई उपयोग नहीं, तब भगवदाराधनमें बाह्य सामग्रीका समावेश क्यों किया गया है ? इस आक्षेपका यथोचित समाधान न मिलनेके कारण जैनियोंमें द्रव्यपूजाके बजाय मूर्तिमान्यता के विरोधी पंथ बन गये हैं ।
तात्पर्य यह कि मूर्तिकी मान्यताको अनिवार्य रूपसे प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें स्थान है । यह निश्चित है कि मूर्तिमान्यता विरोधी स्वयं मूर्तिकी मान्यताको छोड़ नहीं सकते, बल्कि आवश्यकतानुसार उसका उपयोग ही करते रहते हैं । मूर्ति मुख्य वस्तुका प्रतिनिधि होती है, जो हमको मुख्य वस्तुके किसी निश्चित उद्दिष्ट स्वरूप तक पहुँचाने में समर्थ है । किसी वस्तुका प्रतिनिधि आवश्यकता व उद्देश्यके अनुकूल सचेतन व अचेतन दोनों पदार्थ हो सकते हैं । एक वस्तुके समझने में जो दृष्टान्त वगैरहका उपयोग किया जाता है उससे मूर्ति मान्यताका अकाट्य समर्थन होता है । परन्तु द्रव्यपूजाके विषयमें कई तरहके आक्षेप उठाये जा सकते हैं, जिनका समाधान हो जानेपर ही द्रव्यपूजा उपयोगी मानी जा सकती है। नीचे सम्भवित आक्षेपोंके समाधान करने का ही प्रयत्न किया जाता है ।
आक्षेप १ - जबकि भगवानमें इच्छाका सर्वथा अभाव है तो उनके उद्देश्यसे मूर्तिके समक्ष मंत्रोच्चारणपूर्वक नाना उत्तमोत्तम पदार्थ रख देनेपर भो वे उनकी तृप्तिके कारण नहीं हो सकते, मूर्ति तो स्वयं अचेतन पदार्थ है, इसलिये उसके उद्देश्यसे इन पदार्थोंके अर्पण करनेकी भावना ही पूजकके हृदयमें पैदा नहीं हो सकती और न वह इस अभिप्रायसे ऐसा करता ही है । इसलिये भगवानकी पूजा अष्टद्रव्यसे ( द्रव्यपूजा ) नहीं करनी चाहिए ।
इस आक्षेपका समाधान कई प्रकारसे किया जाता है । परन्तु वे प्रकार सन्तोषजनक नहीं कहे जा सकते। जैसे—
समा० १ - जिनेन्द्र भगवान तृषा आदि दोषोंके विजयी हैं । इसलिये वे हमारे तृषा आदि दोषोंके नष्ट करने में सहायक हों, इस उद्देश्यसे पूजक उनकी मूर्ति के समक्ष अष्टद्रव्य अर्पण करता है ।
आलोचना - यह तो माना जा सकता है कि जिनेन्द्र भगवान तृषा आदि दोषोंके विजयो हैं, परन्तु उनको अष्टद्रव्य चढ़ा देने मात्र से हमारे दोष भी नष्ट हो जायेंगे, यह बात तर्क और अनुभवको कसौटीपर नहीं टिक सकती ।
समाधान २ - जिनेन्द्र भगवानको अष्टद्रव्य इसलिए चढ़ाये जाते हैं कि इसके द्वारा पूजकमें बाह्य वस्तुओंसे रागपरिणति घटकर त्यागबुद्धि पैदा हो जाती है जो कि तृषा आदि दोषोंके नाश करनेका प्रधान कारण है ।
आलोचना - यह समाधान भी ठीक नहीं, कारण कि शास्त्रोंका स्वाध्याय विद्वानोंके उपदेश व जिनेन्द्र भगवानके गुणोंका स्मरण आदि ही बाह्य वस्तुमें हमारी रागपरिणति घटाने व त्यागबुद्धि पैदा करनेके यथोचित कारण हो सकते हैं ।
समाधान ३ - दानकी परिपाटी चलानेके लिए यह एक निमित्त है ।
आलोचना - ऐसे निरर्थक दान ( जिनका कि कोई उपयोग नहीं ) की कोई सराहना नहीं करेगा । वास्तविक दान बाह्य वस्तुओंमें अपनी ममत्व बुद्धिको नष्ट करना हो सकता है। यह तो हम करते नहीं । और न इस तरह से यह नष्ट की भी जा सकती है । यह तो शास्त्रस्वाध्याय, उपदेश व जिनेन्द्र भगवान के गुणस्मरण आदिसे ही होगी, ऐसा पहले बतलाया जा चुका है । व्यावहारिक दान दुसरे प्राणियोंकी आवश्यकताओं
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