Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 633
________________ १८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ ___७. समाधान-अणुव्रतोंको धारण करनेवाले व्यक्तियोंसे जीवोंकी उत्पत्ति होना उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। खण्डन--यह समाधान भी निर्दोष नहीं है क्योंकि अणुव्रतोंको धारण करनेवाले व्यक्तिसे जीवकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो ऐसी हालतमें देवोंमें पुनः उच्चगोत्र-कर्मके उदयका अभाव प्रसक्त हो जायगा, जो कि अयुक्त होगा। देवोंमें एक ओर तो उच्चगोत्र-कर्मका उदय जैनधर्ममें स्वीकार किया गया है तथा दूसरी ओर देवगतिमें अणुव्रतोंके धारण करनेको असंभवताके साथ-साथ मात्र उपपादशय्यापर ही देवोंकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है । जीवोंकी अणुवतियोंसे उत्पत्ति होना उच्चगोत्रकर्मका कार्य माननेपर दूसरी आपत्ति यह उपस्थित होती है कि इस तरहसे तो नाभिराजके पुत्र भगवान् ऋषभदेवको भी नीचगोत्री स्वीकार करना होगा क्योंकि नाभिराजके समयमें अणुव्रत आदि धार्मिक प्रवृत्तियोंका मार्ग खुला हुआ नहीं होनेसे जैन-संस्कृतिमें उन्हें अणुव्रती नहीं माना गया है। इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्मके कार्यपर प्रकाश डालने वाले उल्लिखित सातों समाधानोंमेंसे जब कोई भी समाधान निर्दोष नहीं है तो इनके आधारपर उच्चगोत्र-कर्मको सफल नहीं कहा जा सकता है और इस तरह निष्फल हो जानेपर उच्चगोत्र-कर्मको कर्मोके वर्ग में स्थान देना ही अयक्त हो जाता है जिससे इसका (उच्चगोत्रकर्मका) अभाव सिद्ध हो जाता है तथा उच्चगोत्र-कर्मके अभावमें फिर नीचगोत्र-कर्मका भी अभाव निश्चित हो जाता है, कारण कि उच्च और नीच दोनों ही गोत्र-कर्म परस्पर एक-दूसरेसे सापेक्ष होकर ही अपनी सत्ता कायम रक्खे हए हैं। इस प्रकार अंतिम निष्कर्षके रूपमें सम्पूर्ण गोत्र-कर्मका अभाव सिद्ध होता है । । उक्त व्याख्यानपर बारीकीसे ध्यान देनेपर इतनी बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके समयके विद्वान् एक तरफ तो जैन-सिद्धान्त द्वारा मान्य नारकियों और तिर्यंचोंमें नीचताकी व्यवस्थाको तथा देवोंमें उच्चताकी व्यवस्थाको निर्विवाद ही मानते थे लेकिन दूसरी तरफ मनुष्योंमें जैनशास्त्रों द्वारा स्वीकृत उच्चता तथा नीचता सम्बन्धी उभयरूप व्यवस्थाको वे शंकास्पद स्वीकार करते थे। नारकियों और तिर्यचोंमें नीचताकी व्यवस्थाको और देवोंमें उच्चताकी व्यवस्थाको निर्विवाद माननेका कारण यह जान पड़ता है कि सभी नारकियों और सभी तिर्यचोंमें सर्वथा नीचगोत्र-कर्मका तथा सभी देवोंमें सर्वदा उच्चगोत्र-कर्मका उचय ही जैन आगमों द्वारा प्रतिपादित किया गया है और मनुष्योंमें उच्चता तथा नीचता उभयरूप व्यवस्थाको शंकास्पद माननेका कारण यह जान पड़ता है कि चंकि मनुष्योंमें नीचगोत्र-कर्म तथा उच्चगोत्र-कर्मका उदय छद्मस्थों (अल्पज्ञों) के लिये अज्ञात ही रहा करता है। अतः उनमें नीचगोत्र-कर्मके आधारपर नीचताका और उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्चताका व्यवहार करना हम लोगोंके लिये शक्य नहीं रह जाता है। ___ यद्यपि धवलाशास्त्रकी पुस्तक १५ के पृष्ठ १५२ पर तिर्यचोंमें भी उच्चगोत्र-कमकी उदीरणाका कथन किया गया है इसलिए मनुष्योंकी तरह तियंचोंमें भी उच्चता तथा नीचताकी दोनों व्यवस्थायें शंकास्पद हो जाती हैं परन्तु वहींपर यह बात भी स्पष्ट कर दी गई है कि तिर्यचोंमें उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणाका सदभाव माननेका आधार केवल उनके (तिर्य चोंके) द्वारा संयमासंयमका परिपालन करना ही है। वह कथन निम्न प्रकार है: 'तिरिक्खेसू णीचागोदस्य व उदीरणा होदि त्ति सव्वत्थ परूविदं, एत्थ पुण उच्चागोदस्स वि उदीरणा परूविदा । तेणं पुण पुव्वावरविरोहो त्ति भणिदे, ण, तिरिक्खेसु संजमासंजमपरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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