Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 629
________________ १४ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ में ही हो जाया करता है और इसके बाद छठे गुणस्थान में आनेपर वह वस्त्रको अलग करता है । तो इससे यह निष्कर्ष भो निकलता है कि सातवें गुगस्थानकी तरह आठवां आदि गुणस्थानोंका सम्बन्ध भी मनुष्यकी अन्तरंग प्रवृत्तिसे होनेके कारण सवस्त्र मुक्ति के समर्थन में कोई बाधा नहीं रह जाती है और इस तरह दि ० जैन संस्कृतिका स्त्रीमुक्ति निषेध भी असंगत हो जाता है । उत्तर - यद्यपि सभी गुणस्थानोंका सम्बन्ध जीवको अन्तरंग प्रवृत्तिसे ही है, परन्तु कुछ गुणस्थान ऐसे हैं जो अन्तरंग प्रवृत्ति के साथ बाह्यवेशके आधारपर व्यवहारमें आने योग्य हैं । ऐसे गुणस्थान पहला, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ छठा और तेरहवाँ ये सब हैं । शेष गुणस्थान याने दूसरा, सातवाँ, आठवाँ नववाँ, दशवीं, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और चौदहवाँ ये सब केवल अन्तरंग प्रवृत्तिपर ही आधारित हैं । इसलिए जो मनुष्य सवस्त्र होते हुए भी केवल अपनी अन्तः प्रवृत्तिकी ओर जिस समय उन्मुख हो जाया करते हैं उन मनुष्योंके उस समय में वस्त्रका विकल्प समाप्त हो जानेके कारण सातवेंसे बारहवें तकके गुणस्थान मान लेनेमें कोई आपत्ति नहीं है । दि० जैन संस्कृति में भी चेलोपसृष्ट साधुओंका कथन तो आता ही है । परन्तु दि० जैन संस्कृतिकी मान्य तानुसार मनुष्यके छठा गुणस्थान इसलिये सम्भव नहीं है कि वह गुणस्थान ऊपर कहे अनुसार साधुत्वकी अन्तरंग प्रवृत्तिके साथ उसके बाह्य वेशपर आधारित है, अतः जबतक वस्त्रका त्याग बाह्यरूपमें नहीं हो जाता है। तबतक दि० जैन संस्कृतिके अनुसार वह साधु नहीं कहा जा सकता है । इसी आधारपर सवस्त्र होने के कारण द्रव्यस्त्रीके छठे गुणस्थानकी सम्भावना तो समाप्त हो जाती है । परन्तु पुरुषकी तरह उसके भी सातवाँ आदि गुणस्थान हो सकते हैं या मुक्ति हो सकती है इसका निर्णय इस आधारपर ही किया जा सकता है कि उसके संहनन कौन-सा पाया जाता है । मुक्तिके विषयमें जैन संस्कृतिकी यही मान्यता है कि वह बज्रवृषभनाराचसंहनन वाले मनुष्यको ही प्राप्त होती है और यह संहनन द्रव्यस्त्रीके सम्भव नही है । अतः उसके मुक्तिका निषेध दि० जैनसंस्कृतिमें किया गया है । मनुष्यके तेरहवें गुणस्थान में वस्त्रकी सत्ताको स्वीकार करना तो सर्वथा अयुक्त है क्योंकि एक तो तेरहवाँ गुणस्थान षष्ठगुणस्थानके समान अन्तरंग प्रवृत्तिके साथ-साथ बाह्य प्रवृत्तिपर अवलम्बित है, दूसरे वहाँपर आत्माकी स्वालम्बन शक्ति और शरीरकी आत्मनिर्भरताकी पूर्णता हो जाती है, इसलिए वहाँ वस्त्रस्वीकृतिको आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । दि० जैनसंस्कृति में द्रव्यस्त्रीको मुक्ति न माननेका यह भी एक कारण है । जिन लोगोंका यह ख्याल है कि साधुके भोजन ग्रहण और वस्त्र ग्रहण दोनों में कोई अन्तर नहीं है उनसे हमारा इतना कहना ही पर्याप्त है कि जीवनके लिए या शरीर रक्षाके लिए जितना अनिवार्य भोजन है उतना अनिवार्य वस्त्र नहीं है, जितना अनिवार्य वस्त्र है उतना अनिवार्य आवास नहीं है और जितना अनिवार्य आवास है उतना अनिवार्य कौटुम्बिक सहवास नहीं है । अन्तमें स्थूल रूप से साधुका लक्षण यही हो सकता है कि जो मनुष्य मनपर पूर्ण विजय पा लेनेके अनन्तर यथाशक्ति शारीरिक आवश्यकताओंको कम करते हुए भोजन आदिको पराधीनताको घटाता हुआ चला जाता है वही साधु कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656