Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 602
________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ४५ ही स्थायित्वको प्राप्त हो सकती है । परन्तु धर्म क्या ? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । विश्वके रंग-मंचपर धर्म नामपर हिन्दु, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख, मुस्लिम और ईसाई आदि बहुतसे धर्म अपने - अपने भेदों और प्रभेदों सहित देखने में आ रहे हैं। क्या इन सभीको धर्म मान लिया जाय या इनमेंसे किसी एकको धर्म नामसे पुकारा जा सकता है ? अथवा इनमेंसे कोई भी धर्म, धर्म नामका अधिकारी नहीं हो सकता है ? धर्मतत्त्व के सही अर्थको समझने की इसलिये जरूरत है कि उल्लिखित तथा कथित धर्मोके जरिये संपूर्ण मानवजाति अनेक अनिष्टकर वर्गोंमें विभक्त हो गयी है और मानवजातिके ये वर्ग अपने-अपने तथाकथित धर्मको दूसरे तथा कथित धर्मोकी अपेक्षा न केवल अधिक महत्त्व ही देना चाहते हैं बल्कि अपने तथाकथित धर्मको ही धर्म और दूसरे तथाकथित धर्मोंको अधर्म कहने में भी इन्हें संकोच नहीं होता है । और आश्चर्य यह है कि इन तथाकथित धर्मोमेंसे प्रत्येक धर्मको मानने वाले इन अनेक वर्गोंने धार्मिकताको एक निश्चित दायरे में बाँध रखा है। हिन्दू धर्मको मानने वाला हिन्दूवर्ग यश, हवन आदि वैदिक क्रियाकाण्ड और गंगा आदि नदियोंमें स्नान आदिको ही धर्म मानता है, साधुओंका जटा बढ़ाना, पंचाग्नि तप करना और भंग, गाँजा आदि मादक वस्तुओं का सेवन करना आदिको भी वह धर्ममें शुमार करता है । जैनधर्मको माननेवाला जैन वर्ग जैमधर्म प्रसारक तीर्थकरोंकी पूजा वंदना और ध्यान करना पुराणोका ही स्वाध्याय करना और उनमें उपदिष्ट व्रत आदिका अनुष्ठान करना आदिको ही धर्म मानता है। बौद्ध, सिख और पारसी आदि धर्मो को माननेवाले बौद्ध, सिख और पारसी आदि वर्ग अपने-अपने नियत क्रियाकाण्डोंको ही धर्म समझते हैं, मुस्लिम धर्मका उपासक मुसलमानवर्ग मसजिदमें जाकर समाज पढ़ना आदिको धर्म मानता है और दूसरे धर्म वालोंको काफिर समझकर तकलीफ देना आदि बातोंको भी धर्मकी कोटिमें शुमार करनेका साहस करता है तथा ईसाई धर्मका धारक ईसाई भाई गिरजामें जाना और अपने धर्म गुरु ( पादरी) का उपदेश सुनना आदि बातोंको ही धर्म मानता है। उक्त प्रत्येक वर्ग अपनी-अपनी उक्त धार्मिकतामें कभी भी अपूर्णता, सदोषता और निरर्थकताका अनुभव नहीं करता है। इस प्रकार उक्त प्रत्येक वर्ग जहाँ अपने तथाकथित धर्मको धर्म और उसको माननेवाली मानवसमष्टिको धर्मात्मा मानता है वहां वह अपने इस कथित धर्मको राष्ट्र-धर्म और यहाँ तक कि विश्व धर्म कहनेका दुःसाहस भी करता है । जहाँ तक मैं सोच सका हूँ उससे इस परिणामपर पहुंचा हूँ कि उक्त तथाकथित धर्मोमें कोई भी धर्म, धर्म नहीं है क्योंकि धर्म एक ही हो सकता है, दो नहीं, और अधिक भी नहीं । धर्मका प्रतिपक्षी यदि कोई हो सकता है तो वह अधर्म ही होगा, धर्म-धर्ममे प्रतिपक्षिता कभी भी सम्भव नहीं मानी जा सकती है। दुनियाँके किसी भी छोरपर जाया जाय, धर्मके प्रचार और रंग-रूप में कोई भी भेद नजर नहीं आयेगा और यदि भेद नजर आता है तो उसे धर्म समझना ही भूल है। इस प्रकार धर्म जिस तरह सार्वत्रिक है उसी तरह वह शाश्वत भी है, उसकी युगधर्मता अपरिवर्तनीय है, वह हमेशा युगधर्म के रूपमें एक-सा प्रकाशमान होता रहता है। प्रत्येक मनुष्य अपने सीमित बुद्धिवलसे धर्म और अधर्मका विश्लेषण सहजमें ही कर सकता है। इसके लिये बड़े-बड़े ग्रन्थों को टटोलने व परिश्रमके साथ उनका अध्ययन और मनन करनेकी जरूरत नहीं है और न बड़े-बड़े विद्वानोंकी शरण लेना भी इसके लिये आवश्यक हैं । अपने अन्तःकरणमें क्रोध, दुष्ट विचार, अहंकार, छल-कपटपूर्ण भावना, दीनता और लोभवृत्तिको स्थान न देना तथा सरलता, नम्रता और आत्म गौरवके साथ-साथ प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, दया और सहानुभूति आदि सद्भावनाओं को जाग्रत करना धर्म है और अपनी वाचनिक और कायिक बाह्य प्रवृत्तियोंमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहवृत्तिको मानवताके धरातलपर यथायोग्य स्थान देते हुए समता और परोपकारको स्थान देना भी धर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656