Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
२/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२५
कई जातियोंमें गोत्रोंके नामोंके अर्थका अनुमान लगाया जाना असंभव या कठिन है । अग्रवालोंमें गोइल (गोयल), सिंघल, कंसिल, जिंदल, मित्तल आदिको उत्पत्तिका अनुमान लगाना मुश्किल है, संभव है कि ये गर्गकी तरह ब्राह्मण ऋषियोंके नामपर आधारित हों। इसी प्रकार परवारोंमें गोइल्ल, भारिल्ल, बाझल्ल आदि शब्दोंकी उत्पत्तिका अनुमान कठिन है । गोलापों में कुछ गोत्रोंके नामोंके अर्थका अनुमान किया जा सकता है । गोत्रोंको इन भागोंमें विभाजित किया जा सकता है।
(१) आजीविकाके आधारपर :-वर्तमान कपासिया, कोठिया, सनकुटा, करैया। लुप्त, गोरिहा, सोनी। सौनारे गोत्र गोलालारोंमें व सोनी गोत्र खंडेलवालोंमें व ओसवालोंमें भी है। खंडेलवालों व ओसवालोंमें सोनी गोत्रको सोनीगरा चौहानोंसे उत्पन्न वहा जाता है,२४ पर यह सोनेके व्यवसायसे ही सम्बन्धित है।
(२) याकारांत : उनमेंसे अधिकतर स्थानों के नामपर आधारित होते हैं। वर्तमान-कनकसेनया, गुगौरया (या गुबारया), चंदेरिया (चंदेरीके), जुझौतिया (संभवत खजुराहो. • महोबा तरफ़के), धवौलिया, पटौरिया, पतरिया, बनोनया, बिलबिलया (या बिलबिले), भिलसैया (भेलसी ग्राम या भेलसाके), मरैया (मरौराके)। लुप्त-कनकपुरिया, कहारिया, कोनिया, खैरानिया, जतरिया, दरगैया, धमौनिया (धामोनीके), पिपरैया, पपौरहा (पपौराके), बड़घरिया, भरतपुरिया, मझगैया, लखनपुरिया, सपौलिया (या सपेले), सिरसपुरिया, सोरया, सौतिया व हीरापुरिया (हीरापुरके)। इनमेंसे अधिकतर स्थान गोलापूर्वोके केन्द्रीय स्थान (पपौरा, धमोनी आदि) में ही होना चाहिये । अगर इनमेंसे कुछ स्थान भिंड-ग्वालियरके आसपासके सिद्ध होते हैं तो इससे दो निष्कर्ष निकल सकते हैं-या तो गोलापूर्व वास्तवमें ग्वालियरके आसपासके वासी थे, और या इन स्थानोंके गोलालारे दक्षिणमें आ बसे व कालांतरमें गोलापूर्वोमें मिल गये ।
(३) ले या ऐकारांत :---इनमें से कुछ स्थान सूचक प्रतीत होते हैं जैसे वर्तमान-गड़ौले, दुगैले, बिलबिले व लुप्तः खडैरे, तिगैले; चारखेरे, पचलौरे, सपेले। कुछ अन्य स्पष्ट नहीं है जैसे वर्तमान-खुर्देले, गोदरे, पड़ेले (पांडेले), फुसकेले, रांधेले, रौतेले, सांधेले व लुप्त-छवेले, बोदरे। कुछ नाम दोनों प्रकारसे मिलते हैं जैसे बिलबिले-बिलतिलया, सपेले-सपौलिया। कोई-कोई रांधेलीय, खर्देलीय, सांधेलीय लिखने लगे हैं, पर यह आधुनिक संस्कृतिकरण लगता है।
यहाँपर यह बात विचारणीय है कि कई जातियोंमें कई गोत्र लकारांत हैं । ऐसा प्रतीत होता है किएले,-इल व-इल्ल एक ही प्रत्ययके रूप है ।
१. अहारके एक लेखमें खंडेलवालको खडिल्लवाल लिखा गया है। २. श्रवणवेल्गोलाके एक लेख में चन्देलको चंदिल कहा है।
३. गोलापूर्वो में-एले; परवारों व गहोडयोंमें-इल्ल या-अल्ल, अग्रवालोंमें-इल या-अलका अर्थ समान हो सकता है । चन्देल, बुन्देल, बघेल आदिमें-एलका अर्थ भी वही होना चाहिये । यह प्रयोग प्राचीन लगता है, संभव है यह उपरोक्त-या प्रत्ययका ही प्राचीन रूप हो ।
४. संस्कृतके कुछ गोत्रोंके नाम देशी भाषामें नहीं, संस्कृतमें है। दक्षिणके जैनोंमें अक्सर संस्कृत गोत्र रहते है, पर उत्तर भारत में संस्कृत गोत्रों (ऋषियोंके नामोंको छोड़कर) कम ही मिलते है। वर्तमान-- खाग, नाहर, रस, पञ्चरत्न, निर्मोलक । लुप्त-इंद्रमहाजन, गन्धकार, दण्डकार (या दंडधार), साधारण, शेखर। इन्द्रमहाजन कोई अत्यंत संपन्न परिवार व गंधकार इत्रके व्यवसायी लगते हैं।
५. अन्य, वर्तमान-टेंटवार, चौंसरा, छोड़कटे (या छोकड़े), संधी, अलेह, उचा। लुप्त-टीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org