Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
परिणमन ही मात्र प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण होता है । यतः १४वें गुणस्थानमें योगका सर्वथा अभाव रहता है, अतः वहाँ उस जीवमें कर्मबन्धका भी सर्वथा अभाव रहता है।
इसके अतिरिक्त प्रथम गुणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थानतकके जीवोंमें व्यक्तरूपमें और सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गणस्थानतकके जीवोंमें अव्यक्तरूपमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो पुण्यकर्मरूप व्यापार होता रहता है वह भी यथायोग्य उस-उस कषायके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग या द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित होनेसे जीवकी क्रियावतीशक्तिका परिणाम है व उसके आधारपर भी उन जीवोंमें कर्मोंका प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारका बन्ध होता है ।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जिस प्रकार व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानको कर्मबन्धका परम्परया कारण माना गया है उस प्रकार व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानकोकर्मबन्धका साक्षात् या परम्परया कारण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञान कर्मबन्धके कारण न होकर उसके अभावके ही कारण होते हैं। अतएव चतुर्थं गुणस्थानमें मात्र अविरति ही कर्मबन्धका कारण होती है व पंचम गुणस्थानमें मात्र एकदेश अविरति ही कर्मबन्धका कारण होती है तथा षष्ठ गुणस्थानमें मात्र महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूपता ही कर्मबन्धका कारण होती है । निष्कर्ष:
प्रथमगुणस्थानवी जीव इसलिए अज्ञानी है कि उसके मिथ्यात्वकर्मका उदय रहता है और तृतीय गुणस्थानवी जीव इसलिए अज्ञानी है कि उसके सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उदय रहता है । यद्यपि द्वितीय गुणस्थानवी जीवमें दर्शनमोहनीयकर्मकी प्रकतियोंका उपशम रहता है, परन्त वह जीव अनन्तानबन्धी कर्मके उदयमें आसक्तिवश संकल्पीपाप भी करता रहता है। इसलिए उसे ज्ञानी नहीं कहा जा सकता है, उसे भी आगममें अज्ञानी ही कहा गया है । समयसार गाथा ७२ की आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट लिखा है कि जो जीव भेदज्ञानी होकर भी आस्रवोंमें प्रवृत्त रहता है उसे भेदविज्ञानी नहीं कहा जा सकता है और यही कारण है कि जीवको निश्चयसम्यग्दष्टि बननेके लिए दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम या क्षयके साथ अनन्तानुबन्धीकर्मके उपशम या क्षयको भी कारण माना गया है। फलतः चतुर्थगणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र अविरति ही कारण होती है, पंचमगुणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र एकदेश अविरति ही कारण होती है और षष्ठ गुणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूपता ही बन्धका कारण होती है, क्योंकि जबतक जीव अज्ञानधारामें वर्तमान रहता है तबतक ही उस जीवके कर्मबन्धमें व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानको कारण माना गया है और जब जीव ज्ञानी हो जाता है अर्थात् निश्चयसम्यग्दृष्टि हो जाता है तो केवल अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप कर्मधारा ही जीवके कर्मबन्धमें कारण होती है। इसी तरह सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह भी कर्मधाराके आधारपर ही होता है, इसलिए सप्तम गुणस्थानसे दशम गुणस्थानतक जीवोंमें ज्ञानधाराके साथ कर्मबन्धमें कारणभूत कर्मधाराका सद्भाव स्वीकार किया गया है । इस विवेचनसे यह भी स्पष्ट है कि प्रथम गुणस्थानसे तृतीय गुणस्थानतकके जोवोंमें अज्ञानधारापूर्वक कर्मधारा बन्धको कारण होती है व चतुर्थ गुणस्थानसे षष्ठ गुणस्थानतकके जीवोंमें व्यक्तरूपसे व सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंमें अव्यक्तरूपसे मात्र क्रियाधारा ही यथायोग्य राग-द्वषरूप कषाय भावोंसे प्रभावित होती हई कर्मबन्धका कारण होती है । इत्यलम् ।
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