Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी'
पूर्वपक्ष का प्रश्न -- द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे ही होती हैं या अनियतक्रमसे भी ? उत्तरपक्षका उत्तर— द्रव्यों में होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे ही होती हैं । समीक्षा
पर्यायोंका विवरण
१. प्रवचनसार के दूसरे ज्ञेयतत्त्वाधिकार की गाथा १ में बतलाया है कि विश्व में एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ हैं उन्हें द्रव्य कहते हैं । प्रत्येक द्रव्य में स्वतः सिद्ध अनन्त गुण हैं । तथा प्रत्येक द्रव्यमें द्रव्य-पर्यायें व प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येक गुण में गुणपर्यायें होती हैं । तत्त्वार्थसूत्रके "गुणपर्ययवद्द्रव्यं" (५-३८) सूत्रका भी यही अभिप्राय है
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२. तत्त्वार्थसूत्र के “सद्द्रव्यलक्षणम्" (५-२९) सूत्र में द्रव्यका लक्षण "सत्" कहा है तथा द्रव्यका स्वतःसिद्ध स्वभाव होने से गुण भी "सत्" कहलाता है । प्रत्येक द्रव्य में व प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येक गुणमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और प्रोव्यरूपसे परिणमन होता रहता है । द्रव्य और गुणकी स्व-स्व उत्तरपर्यायके विकासको उत्पाद ओर पूर्वपर्यायके विनाशको व्यय कहते हैं । द्रव्यों और गुणोंमें ये उत्पाद और व्यय दोनों उनकी द्रव्यरूपता और गुणरूपताको सुरक्षित रखकर ही होते हैं । अतः द्रव्य और गुणमें ध्रौव्यरूपता भी सतत् बनी रहती है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र के "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ” ( ५ - ३० ) सूत्र में सत्का लक्षण ऐसा ही निर्धारित किया गया है ।
पर्यायोंकी द्विरूपता :
सभी द्रव्यपर्यायें स्व-परप्रत्यय ही होती हैं तथा सभी गुणपर्यायोंमेंसे षट्गुणहानि - वृद्धिरूप पर्यायें स्वप्रत्यय और इनके अतिरिक्त शेषगुणपर्यायें स्व-परप्रत्यय ही होतीं हैं । जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्री की सहायतापूर्वक उपादानकारणजन्य हो उसे स्व-परप्रत्यय और जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्री की सहायता के बिना उपादानकारणजन्य हो उसे स्वप्रत्यय कहते हैं । पर्यायका विभाजन कालद्रव्यकी अखण्ड पर्यायभूत समयसापेक्ष होनेसे द्रव्य और गुणकी प्रत्येक पर्याय समयवर्ती मानी गई है।
भय पर्यायोंकी आगमद्वारा पुष्टि :
तत्वार्थ सूत्रके "निष्क्रियाणि च " ( ५-७) सूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धिमें व नियमसारकी गाथा १४ के उत्तरार्द्ध में पर्यायोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दो भेद स्पष्ट स्वीकार किये गये हैं । पर्यायोंको उत्पत्ति में नियतक्रमता और अनियतक्रमताका निर्णय :
यतः स्वप्रत्यय पर्यायों की उत्पत्ति निमित्तनिरपेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर होती है, अतः वह नियतक्रमसे ही होती है और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति निमित्तसापेक्ष स्वप्रत्ययता के आधारपर होती है, अतः वह निमित्तोंके समागमके अनुसार नियतक्रमसे भी होती है और अनियतक्रमसे भी होती है ।
१. वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, द्वारा प्रकाशित, १९८४ ई० ।
२. अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि ।
तेहि पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥ १॥
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