Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४ / दर्शन और न्याय : ४७
जायगा। इससे विपरीत जो आचार या व्यवहार आज शान्तिवर्धक, लोकोपयोगी व लोकप्रशंसित हों वे भले ही किसी समय संक्लेशवर्धक, लोकानुपयोगी व लोकनिन्दनीय रहे हों, आज उनको सत्य या उपादेय ही समझा जायगा । इसलिये जो लोग परिस्थितिका अध्ययन किये बिना ब्राह्मण संस्कृतिके अपनानेमें तात्कालीन जैनाचार्यों को भूल बतलाते हैं वे स्वयं भूल करते है । और जो आज की परिस्थितिका अध्ययन किये बिना उस जमानेकी संस्कृतिको आजकी संस्कृति बनाना चाहते हैं वे भी भूल करते है-दोनों ही स्याद्वादके रहस्यसे अनभिज्ञ है । इतना ही नहीं, स्याद्वादके रहस्यको हम लोग इतना भूल गये कि “मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना" की लोकोक्ति जैनियोंके अन्दर ही अन्दर चरितार्थ हो रही है। प्रत्येक जैनी इच्छानुकूल अपनी समझके अनुसार अपने आचार व व्यवहारको ही धर्म समझने लगा है। उसके सामने दूसरोंके उपदेशोंका कुछ महत्त्व नहीं, जबतक कि वे उसकी इच्छाके अनुकूल न हों। स्याद्वादके उपयोगकी कमीका फल
जहाँ जैनधर्म में स्याद्वादका अधिक-से-अधिक उपयोग किया गया है वहीं उसके उपयोगमें कमी भी रह गई है। स्याद्वादका उद्देश्य संपूर्ण धर्मोंका समन्वय करके मनुष्यसमाजमें शान्ति स्थापित करना था, लेकिन दूसरी धार्मिक समष्टियाँ स्वार्थवासनाकी पूतिके लिये स्वधर्मप्रेमी होती हई भी परमधर्मासहिष्णु व हटनाही बन गई थी, इसलिये उस उदेशकी प्रतिमें तो स्याद्वादी असफल ही रहे। इसके अतिरिक्त जैनियोंमें भी स्वार्थवासना आने लगी थी, जिससे जैनी भी स्वधर्मप्रियताके साथ-साथ परधर्मासहिष्णुता व हटग्राहिताके शिकार हो गये, जिससे धीरे-धीरे स्याद्वादी जैनी भी सम्प्रदायवादी बने । स्याद्वादका महत्त्व एक सांप्रदायिक पुष्टिसे अधिक न रह सका । दूसरोंकी दृष्टि में जैनधर्म एक सम्प्रदाय समझा जाने लगा। इधर जैनियोंने भी पक्षपुष्टिमें अपनी शक्तिका उपयोग करना प्रारम्भ किया, जिससे जैनाचार्य जैसा कि ऊपर स्याद्वादका उपयोग बतला आये हैं उनके अनुसार सम्प्रदाय रूपसे ही जैनधर्मको कायस रख सके । उसका परिणाम यह हुआ कि आज जब साम्प्रदायिकता मनुष्य-समाजका रक्त-शोषण कर रही है उसमें जैनी भी कम भाग नहीं ले रहे हैं। तात्पर्य यह है कि स्याद्वादी होकरके जैनियोंने स्याद्वादका क्रियात्मक उपयोग करना नहीं सीखा, जिससे स्याद्वादके द्वारा मनुष्य-समाजका जो कुछ हित हो सकता था वह न तो हुआ और न हो रहा है। हमारा कर्तव्य
इस भयानक किन्तु विचारशील यगमें हमारा कर्तव्य है कि अपने जीवनको लोकोपयोगी बनावें। यदि हम अपने जीवनको लोकोपयोगी नहीं बना सकते तो विश्वास रखना चाहिये कि हम परलोकके लिये भी कुछ नहीं कर रहे हैं। स्याद्वादसिद्धान्तके अधिकारी रहने मात्रसे हम स्याद्वादका असर दुसरों पर नहीं डाल सकते । कार्योंका ही दूसरोंपर असर हआ करता है। हम अपने लोकोपयोगी कर्तव्यको स्याद्वादके द्वारा निर्धारित कर उसीके लिये जीवन समर्पित कर दें; उसके द्वारा हमारे जीवनको शान्ति ही न होगी बल्कि ऊपरसे धर्म-धर्म चिल्लानेकी भारतकी कुप्रवत्ति नष्ट होगी एवं जैनधर्मकी लोकोपयोगिता मनुष्य-समाजमें क्रियात्मक चमत्कार दिखला देगी।
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