Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 587
________________ ३० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य और विश्वमें शान्ति तथा सुखका साम्राज्य स्थापित करनेके लिये हमारा यह सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। द्वितीय समस्या : तत्त्वचर्चा द्वारा गुत्थियाँ सुलझायें दि० जैनसमाजमें जैनसंस्कृतिके अध्येता, अध्यापयिता और व्याख्याता विद्वान विद्यमान हैं । परन्तु प्रायः देखनेमें आ रहा है कि संस्कृतिके तत्त्वज्ञान और आचार संबन्धी बड़ी-से-बड़ी और छोटी-से-छोटी ऐसी बहुतसीगुत्थियाँ है जो विद्वानोंके पारस्परिक विवादका स्थल बनी हुई हैं। इनके अतिरिक्त सैकड़ों ही नहीं, हजारों सांस्कृतिक गुत्थियां आगमग्रन्थों में ऐसी विद्यमान है जिनके ऊपर अभी विद्वानोंका लक्ष्य ही नहीं पहुँच पाया है। लेकिन उनका सुलझ जाना सांस्कृतिक दृष्टिसे और मानवकल्याणकी दृष्टिसे बड़ा उपयोगी हो सकता है। यदि विद्वानोंकी समझमें यह बात आ जाय कि साँस्कृतिक गुत्थियोंको सुलझाना हमारा परम कर्तव्य है और यह भी समझमें आ जाय कि सब विद्वान एक स्थानपर एक साथ बैठकर सद्भावनापूर्ण विचार-विमर्श द्वारा ही सरलतापूर्वक इस कार्यको सम्पन्न कर सकते हैं तो फिर मेरा सुझाव है कि हम अपने कार्यक्रमकी एक ऐसी स्थायी योजना बनावें, जिसके आधारपर वर्ष में कम-से-कम एक बार प्रायः सभी विद्वान एक स्थलपर बैठे तथा संस्कृतिके गूढ़तम रहस्योंकी खोज करें और विवादग्रस्त विषयोंको भी सुलझानेका प्रयत्न करें । गत वर्ष सांस्कृतिक रहस्योंकी खोजके लिये जयपुर-खानियामें विद्वानों द्वारा की गयी सद्भावनापूर्ण तत्त्वचर्चाने यह सिद्ध कर दिया है कि परस्पर-विरुद्ध विचारधारा वाले विद्वान भी एक स्थानपर एक साथ बैठकर सद्भावनापूर्ण ढंगसे तात्त्विक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न कर सकते हैं। वास्तवमें जयपुर-खनियामें जो तत्त्वचर्चा हुई उसका ढङ्ग आदर्शात्मक रहा और उससे जो सामग्री प्रकाशमें आनेवाली है वह जैनसंस्कृतिके लिये ऐतिहासिक महत्त्वकी होगी। इसलिये तत्त्वचर्चाओंकी इस परम्पराको इसी ढङ्गसे आगे चालू रखनेका हमें ध्यान रखना ही चाहिये । उल्लिखित प्रकारकी तत्त्वचर्चाओंका महत्त्व इसलिये और है कि पुरातन सांस्कृतिक विद्वान हमारे बीचमेंसे धीरे-धीरे कालकवलित होते जा रहे हैं और आगे सांस्कृतिक विद्वान तैयार होनेके आसार ही दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। ऐसी हालतमें यदि मौजूदा विद्वान अपने बीच उत्पन्न संस्कृति-सम्बन्धी विवाद नहीं सुलझा सके, तो जैन समाजकी भावी पीढ़ीके समक्ष हम अपराधी सिद्ध होंगे तथा जैन संस्कृतिके बहुतसे मानवकल्याणकारी गूढ़तम रहस्य हमेंशाके लिये गुप्त ही बने रहेंगे । जैन संस्कृतिका तत्त्वज्ञान तथा आचार-पद्धति सर्वज्ञताके आधारपर स्थापित होनेके कारण विज्ञानसमर्थित हैं । षद्रव्यों और सप्ततत्त्वोंकी अपने-अपने ढङ्गसे व्यवस्था, आत्मामें संसार और मुक्तिको व्यवस्था, संसारके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग तथा मुक्तिके कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र, उन्नति और अवनतिकी सूचक गुणस्थानव्यवस्था, कर्मसिद्धान्त, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद, प्रमाण और नयकी व्यवस्था, निश्चय और व्यवहार नयोंका विश्लेषण, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय, नैगम आदि नयोंकी स्थापनाका आधार तथा इनमें अर्थनय और शब्द नयोंकी कल्पना आदि-आदि जैन संस्कृतिका तत्वज्ञानसे सम्बन्ध-विवेचन वैज्ञानिक और दूसरी संस्कृतियोंकी तुलनामें सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो सकता है। इसी प्रकार जैन संस्कृतिकी आचार-पद्धतिकी व्यवस्थाएं भी समझदार लोगोंके गले उतरने वाली हैं। हाथसे कूटे गये और मिलोंसे साफ किये गये चावल में, हाथ-चक्कीसे और मशीन-चक्कीसे पीसे गये आटेमें पोषक तत्त्वोंकी हीनाधिकताके कारण उपादेयता और अनुपादेयताका प्रचार महात्मा गांधीने भी किया था। इसी प्रकार रात्रिभोजन-त्याग तथा पानी छानकर पीनेकी व्यवस्था, आटे आदिका कालिक मर्यादाके भीतर ही उपयोग करनेका उपदेश आदि जितना भी आचार-पद्धतिसे सम्बन्ध रखने वाला जैन संस्कृतिका विषय है वह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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