Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन संस्कृति और तत्त्वज्ञान'
सार
वीतरागविज्ञानता ।
तीन भुवन में शिवस्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारिके ॥
गत वर्ष विद्वत्परिषद्का साधारण अधिवेशन मध्यप्रदेशकी सिवनी नगरीमें त्रैलोक्याधिपति श्री १००८ जिनेन्द्रदेव के पञ्चकल्याणक महोत्सव के अवसरपर इसी फरवरी मास में हुआ था । उसके एक वर्ष पश्चात् यहाँपर उसका यह नैमित्तिक अधिवेशन हो रहा है ।
सिवनी में हुए साधारण अधिवेशनके अवसरपर मैंने अपने अध्यक्षीय भाषण में विद्वत्परिषद् के उद्देश्योंके अनुकूल कुछ अवश्य विचारणीय समस्यायें प्रस्तुत की थीं। प्रसन्नता की बात है कि उनको लक्ष्यमें रखकर उस अधिवेशन में माननीय सदस्यों द्वारा कुछ निर्णय भी लिये गये थे । उन निर्णयोंके आधारपर विद्वत्परिषद्ने गत एक वर्ष में क्या प्रगति की है ? इसकी जानकारी विद्वत्परिषद्के सुयोग्य मंत्री जी आपको देंगे ।
सर्वप्रथम यह निवेदन करना चाहता हूँ कि एक वर्षके अनन्तर हमें पुनः विद्वत्परिषद्का अधिघेशन जैन संस्कृति की प्राचीनतम और गौरवपूर्ण पवित्र तीर्थभूमि इस श्रावस्ती नगरीमें हो रहे पञ्चकल्याणक महोत्सव के अवसरपर नैमित्तिकरूपसे करनेका उत्तम योग प्राप्त हुआ है । भावना है कि हमारी श्रमशक्तिका अधिक-से-अधिक उपयोग विद्वत्परिषद्की गतिशीलताको जीवित रखकर उसको सुदृढ़ बनाने और उसके उद्देश्योंकी पूर्ति करने में हो सके ।
विद्वत्परिषद्का वर्तमान में जो कार्यक्रम चालू है उसके विषय में विद्वत्परिषद्के सिवनी अधिवेशन द्वारा निर्णीत किये गये महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव आधार हैं । उन प्रस्तावोंको आपके समक्ष दुहरा देना उचित समझता हूँ व आशा करता हूँ कि आप उन्हें सावधानीसे श्रवण करेंगे तथा उनपर गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे ।
“विद्वत्परिषद्का यह अधिवेशन अनुभव करता है कि जैनतत्त्वज्ञान और संस्कृतिको आधुनिक ढंगसे प्रकट करनेके लिये आवश्यक है कि विद्वत्परिषद् ऐसी गोष्ठियोंका अधिवेशनपर आयोजन करें, जिनमें जैन विषयोंपर शोधपूर्ण एवं परिचयात्मक निबन्ध पढ़े जायें और उन निबन्धोंको एक स्मारिकाके रूपमें प्रकट किया जाय । " ( प्रस्ताव ६ )
"दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् यह प्रस्ताव पास करती है कि जो अंग्रेजीके विद्वान होने के साथ ही संस्कृत एवं धर्मके ज्ञाता विद्वान् हैं उनसे सम्पर्क बनाया जाय और उनसे अनुरोध किया जाय कि वे विद्वत्परिषद् सम्बन्धित होकर सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में कार्य करें, ताकि जैन संस्कृति अक्षुण्य बनी रहे ।” (प्रस्ताव ७ ) "विद्वत्परिषद् के द्वारा प्रयास किया जावे कि रेडियोपर प्रसारित करने योग्य प्राचीन पद तथा अन्य सामयिक भाषण आदि अच्छी और उपयुक्त सामग्री उपलब्ध की जासके तथा प्रचारमंत्रालयको इस दिशा में प्रेरित भी किया जावे । " ( प्रस्ताव ९ )
" समाजमें विद्वानोंकी परम्पराको अक्षुण्ण रखनेके लिये विद्वत्परिषद् प्रस्ताव करती है कि गृहविरत त्यागियोंके हृदय में भी ज्ञानवृद्धिकी भावनाको जाग्रत करके किसी विद्यालयमें उनके शिक्षणकी व्यवस्था की जावे व विद्यालय इसके लिये त्यागियोंके उपयुक्त सब व्यवस्थाका उत्तरदायित्व लेकर ज्ञानप्राप्तिका सुअवसर प्रदान करें ।" (प्रस्ताव १० )
१. श्रावस्ती में १९६६ में आयोजित वि० प० के नैमि० अधिवेशनपर अध्यक्षपद से दिया गया भाषण ।
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