Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५ / साहित्य और इतिहास : ३७
अपने अन्तःकरणमें विरक्तिभाव जागृत कर लेता है तथा "नित्य और निरामय सुख आत्माके स्वतन्त्र हो जानेपर ही प्राप्त हो सकता है" ऐसा जानकर वह मुमक्ष बन जाता है तो उसके उस विरक्तिभावसे भरे हए अन्तःकरणसे यह आवाज अनायास ही निकलने लगती है कि
"मेरे कब हो वा दिनकी सुघरी
तन, बिन बसन, असन बिन, वनमें निवसों, नासादष्टि धरी" अर्थात् वह विचारने लगता है कि मुझे कब उस दिनका शुभ अवसर प्राप्त हो, जिस दिन मैं नग्न दिगम्बरमद्राको धारण करके वनको अपना निवास स्थल बना लं? और अपनी इस भावनाको सुदढ़ करता हआ वह आगे चलकर जब वास्तवमें वनवासी हो जाता है तब उसके परिणामोंकी वृत्ति भी
"अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-कांच, निन्दन-थुतिकरन,
अर्घावतारण-असिप्रहारणमें सदा समता धरन ।" -के रूपमें चमक उठती है। इतना ही नहीं, वह इतने मात्रसे सन्तुष्ट न होकर आगे अपनी प्रवृत्तियोंकी बहिर्मुखताको समाप्त करके उन्हें अन्तर्मुखी बनाकर मन, वचन और काय सम्बन्धी योगोंकी निश्चलता प्राप्त करता हुआ आत्माका इस तरह ध्याता बन जाता है कि मृग भी उसे पाषाण समझकर निर्भयताके साथ उसके पास आकर अपनी खाज खुजलाने लग जाता है और अन्तमें उसकी यहाँ तक स्थिति बन जाती है कि उसे इतना भी पता नहीं रह जाता है कि कौन तो ध्याता है ? किसका ध्यान किया जा रहा है ? और वह ध्यानक्रिया भी कैसी हो रही है ? अर्थात् उस समय वह केवल शुद्धोपयोगरूप ऐसा निश्चलदशाको प्राप्त हो जाता है, जिसके होनेपर वह यथायोग्य क्रमसे कर्मों तथा नोकर्मों के साथ विद्यमान आत्माकी परतन्त्रताको समूल नष्ट करके अन्तमें अपना चरमलक्ष्यभूत परमपद अर्थात् आत्मस्वातंत्र्यस्वरूप मोक्षको प्राप्त कर लेता है।
. लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकारके तत्त्वज्ञानोंमेंसे लौकिकतत्त्वज्ञान तो जैन संस्कृतिको बाह्य आत्मा है क्योंकि इससे हमें अपने जीवनको सुखी बनानेका मार्ग प्राप्त होता है और आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान उसकी (जैन संस्कृतिकी) अन्तरंग आत्मा है क्योंकि इससे हमें आत्माको स्वतन्त्र बनानेका मार्ग प्राप्त होता है । यद्यपि प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह आत्माको स्वतन्त्र बनानेके मार्गकी प्राप्तिको अपने जीवनका मुख्य लक्ष्य निर्धारित करे तथा मुमुक्षु बनकर वह अपने शरीरको अधिक-से-अधिक स्वावलम्बी बनानेका प्राकृतिक ढंगसे प्रयास करे और इस तरह उसका शरीर जितना-जितना स्वावलम्बी बनता जाय उतना-उतना ही वह अणुनतों व इससे भी आगे महावतोंके रूप में क्रमशः शरीरसंरक्षण के लिये तब तक आवश्यक परवस्तुओंका अवलम्ब छोड़ता चला जाय, परन्तु अन्तःकरणमें मोक्षप्राप्तिकी भावनाका जागरण न होनेसे जो अभी तक ममक्ष नहीं बन सके अथवा मोक्षप्राप्तिकी भावनाका अन्तःकरणमें जागरण हो जानेपर भी जो अपने शरीरको स्वावलंबी बनानेमें असमर्थ हैं उन्हें भी “जियो और जीने दो'के सिद्धान्तानुसार सम्पूर्ण मानवसमष्टिके संरक्षणकी चिन्ता रखते हुए उसके साथ घुलमिलकर समानरूपमें रहनेका अपना जीवनमार्ग निश्चित करना परमावश्यक है क्योंकि इसके बिना न तो उनका जीवन उदात्त और सुख-शान्तिमय हो सकता है और न वे अपने जीवनको आध्यात्मिकताकी ओर मोड़ सकते हैं। जिन महापुरुषोंने पूर्व में जब भी आध्यात्मिक धर्मके मार्गपर चलनेकी ओर कदम बढ़ाया है तो उन्होंने अपने जीवनमार्गको "जियो और जीने दो"के सिद्धान्तानुसार परिष्कृत करनेका सर्व प्रथम प्रयत्न किया है।
मैंने इस भाषणके प्रारम्भमें श्रद्धेय पं० दौलतरामजी कृत छहढालाके जिस मंगलमय पद्यके द्वारा
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