Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५ / साहित्य और इतिहास : ३१
मानवजीवनके लिये कितना हितकर है, इसे आज प्रत्येक व्यक्ति सरलतासे समझ सकता है । हमें इन सबबातोंको प्रकाशमें और प्रचारमें लाना है, इसलिये इसे भी हमें अपने कार्यक्रमका अंग बनाना चाहिये।
उल्लिखित सम्पूर्ण कार्योंको सम्पन्न करनेके लिये एक उपाय यह भी हो सकता है कि बिद्वत्परिषद्का अपना एक सांस्कृतिक पत्र हो, जिसके माध्यमसे विद्वान जैनसंस्कृतिके गूढ़तम रहस्योंको प्रकाशमें लायें, परस्परके तात्त्विक विवादोंको सुलझाएं और आचार-पद्धतिकी वैज्ञानिक ढङ्गसे जनताके लिये उपयोगिता समझाएँ । अभी जैन समाजमें जितने पत्र निकलते हैं उनकी पद्धति प्रायः स्वार्थपूर्ण और संघर्षात्मक है । मैं नहीं समझता हूँ कि उनके द्वारा जनताका या संकृतिका कुछ भला हो रहा है, वे तो केवल व्यक्तिगत कषायपुष्टिके ही साधन हो रहे हैं, इसलिये हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि विद्वत्परिषद्का पत्र मौजूदा पत्रोंमें दिखाई देनेवाली बुराइयोंसे परे हो । तृतीय समस्या : विद्वानोंका संगठन और उनकी कठिनाइयाँ
__कलकत्तेमें वीरशासन महोत्सवके अवसरपर जब विद्वत्परिषद्की स्थापना हुई थी उस समय वहाँ नरम और गरम, सुधारक और स्थितिपालक आदि परस्परविरोधी विचारधाराओं वाले बहुतसे सांस्कृतिक विद्वान उपस्थित थे। उक्त अवसरपर अकस्मात् एक ऐसी घटना घट गयी थी, जिससे प्रभावित होकर उपस्थित सभी सांस्कृतिक विद्वानोंने अपना संगठन बनानेका दृढ़ संकल्प किया था और उसी संकल्पके बलपर उन्होंने अपनी पारस्परिक विचार-भिन्नताको गौण करके तत्काल इम विद्वत्परिरदकी स्थापना कर डाली थी। यह विद्वत्परिषद् आज भी उसी आधारपर चल रही है यानी इसमें आज भी पारस्परिक विचारभेद रखने वाले विद्वान सम्मिलित हैं, उन्हें इससे ममता है और इसके कार्यो में बराबर हाथ बटा रहे हैं।
इतना होते हुए भी जब तक हम सब मिलकर सामूहिक ढङ्गसे सर्व-साधारण विद्वानोंकी कठिनाइयोंपर गौर नहीं करेंगे तब तक हमारा यह संगठन सुदढ़ नहीं रह सकता है। विद्वत्परिषदकी स्थापनाके अवसरपर मुख्यरूपसे इस बातपर बल दिया गया था कि विद्वानोंकी कठिनाइयोंको समझा जाय और उनके निराकरण करनेके सुन्दरतम उपाय भी खीज निकाले जावें ।
यद्यपि विद्वत्परिषद्ने इस ओर ध्यान अवश्य दिया है परन्तु अभी तक इसमें वह पूर्णरूपसे सफल नहीं हो पायी है। विद्वानोंके सामने विद्वत्परिषद्की स्थापनाके समय जिस रूपमें कठिनाइयां विद्यमान थीं, इस समय उनका रूप कई गुणा अधिक हो गया है, इसलिये हमें विद्वानोंकी कठिनाइयोंके निराकरण करनेकी और पुनः ध्यान देना है, अतः इसके लिये कैसी योजना उचित हो सकती है, इसपर विचार करें। चतुर्थ समस्या : विद्वत्परिषद् और शास्त्रीपरिषद्का एकोकरण
दिगम्बर जैन समाजमें सांस्कृतिक विद्वान तो हैं, परन्तु उनकी संख्या विशेष अधिक नहीं कही जा सकती है फिर भी विद्वानोंके नामपर विद्वत्परिषद् और शास्त्रिपरिषद् दो संस्थाये वर्तमानमें कार्य कर रही है । मेरा अपना ख्याल है कि यदि दोनों संस्थाओंका एकीकरण हो जाय तो मिली हुई कार्यशक्तिसे कार्य भी अधिक और उत्तम हो सकता है। एक बात और है कि अलगावसे पारस्परिक संघर्षको भी प्रोत्साहन मिलता है । यदि मेरा इन दोनोंके एकीकरणका सुझाव आपको मान्य हो, तो एकीकरणकी क्या भूमिका हो सकती है ? इसपर भी आपको विचार करना चाहिये । पंचम समस्या : सांस्कृतिक ज्ञानकी सुरक्षा
अभी भी दिगम्बर जैन समाजके अन्दर संस्कृतिका अध्ययन कराने और सांस्कृतिक विद्वान तैयार
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