Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 541
________________ ७४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ शक्तिविशिष्ट स्वीकार करते हैं तथा अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार सभी दर्शन इसको पुरुष, आत्मा, जीव, जीवात्मा, ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य अलग नामोंसे उल्लेख करते हैं। प्रत्येक प्राणीके शरीरमें एक-एक चित्रशक्तिविशिष्ट तत्त्वके अस्तित्वकी समान स्वीकृति रहते हुए भी उक्त दर्शनोंमेंसे कोई-कोई दर्शन तो इन सभी चित्शवितविशिष्ट तत्त्वोंको परस्पर मूलतः ही पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं और कोई-कोई ईश्वर या परब्रह्मके एक-एक अंशके रूपमें इन्हें पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं। अर्थात् कोई-कोई दर्शन उक्त चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करते है और कोई दर्शन उनकी नित्य और व्यापक ईश्वर या परब्रह्मसे उत्पत्ति स्वीकार करके एक-एक चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वको उक्त ईश्वर या परब्रह्मका एक-एक अंश मानते है, उन्हें मूलतः पृथक्-पृथक् नहीं मानते हैं। सांख्य, मीमांसा आदि कुछ दर्शनोंके साथ-साथ जैनदर्शन भी संपूर्ण चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करके उन्हें परस्पर भी पृथक्-पृथक् ही मानता है । उक्त प्रकारसे चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वकी सत्ताको स्वीकार करनेवाले सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध ये सभी दर्शन प्राणियोंको समय-समयपर होनेवाले सुख तथा दुःखका भोक्ता उन प्राणियोंके अपने-अपने शरीर में रहनेवाले चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वको ही स्वीकार करते है सभी दर्शनोंकी इस समान मूलमान्यताके आधारपर उनमें (सभी दर्शनोंमें) समानरूपसे निम्नलिखित चार सिद्धान्त स्थिर हो जाते है (१) प्रत्येक प्राणीके अपने-अपने शरीरमें मौजूद तथा भिन्न-भिन्न दर्शनोंमें पुरुष, आत्मा, जीव, जीवात्मा, ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य भिन्न-भिन्न नामोंसे पकारे जानेवाले प्रत्येक चितशक्तिविशिष्टतत्वका अपने-अपने शरीरके साथ आबद्ध होनेका कोई-न-कोई कारण अवश्य है। (२) जब कि प्राणियोंके उल्लिखित विशिष्ट व्यापारोंके प्रादुर्भाव और सर्वथा विच्छेदके आधारपर प्रत्येक चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वकी अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ प्राप्त हई बद्धताका जन्म और मरणके रूपमें आदि तथा अन्त देखा जाता है तो मानना पड़ता है कि ये सभी चितशक्तिविशिष्ट तत्त्व सीमित काल तक ही अपने-अपने वर्तमान शरीरमें आबद्ध रहते हैं। ऐसी हालतमें यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेसे पहले ये चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व किस रूपमें विद्यमान रहे होंगे? यदि कहा जाय कि अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेसे पहले वे सभी चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व शरीरके बन्धनसे रहित बिल्कुल स्वतंत्र थे, तो प्रश्न उठता है कि इन्हें अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेका कारण अकस्मात् कैसे प्राप्त हो गया ? इस प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके कारण चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वकी सत्ताको स्वीकार करनेवाले उक्त सभी दर्शनोंमें यह बात स्वीकार की गयी है कि अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेसे पूर्व भी ये सभी चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व किसी दूसरे अपने-अपने शरीरके साथ आबद्ध रहे होंगे और उससे भी पूर्व किसी दूसरे-दूसरे अपने-अपने शरीरके साथ आबद्ध रहे होंगे। इस प्रकार सभी चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी शरीरबद्धताकी वह पूर्वपरंपरा इनकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करनेवाले दर्शनोंकी अपेक्षा अनादिकाल तक और ईश्वर या परमब्रह्मसे इनकी उत्पत्ति स्वीकार करनेवाले दर्शनोंकी अपेक्षा ईश्वर या परमब्रह्मसे जबसे इनकी उत्पत्ति स्वीकार की गयी है तब तक माननी पड़ती है । (३) चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी शरीरबद्धताका कारण उनका स्वभाव है-यह मानना असंगत है, कारण कि एक तो स्वभाव परतन्त्रताका कारण ही नहीं हो सकता है। दूसरे, स्वभावसे प्राप्त हुई परतन्त्रताकी हालतमे उन्हें दुःखानुभवन नहीं होना चाहिये, लेकिन दुःखानुभवन होता है । इसलिये सभी चितशक्तिविशि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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