Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 582
________________ इसा ५ / साहित्य और इतिहास : २५ घातक स्वीकार किया गया है जबकि श्वेताम्बर संप्रदायमें उसे (वस्त्रग्रहणको) संयमका घातक स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिये द्रव्यस्त्रीके चौदह गणस्थान हो सकते हैं या नहीं? इस प्रश्नका निर्णय इस प्रश्नके निर्णयपर अवलंबित है कि वस्त्रग्रहणके साथ संयमका सद्भाव रह सकता है या नहीं ? जो विद्वान वेदवैषम्यके आधारपर द्रव्यस्त्रीके संयम तथा मुक्तिकी निषेधविषयक दिगम्बर-मान्यता का समर्थन करना चाहते हैं वे भी हमारी रायसे इस तरहसे दिगम्बर संप्रदायमें मान्य 'द्रव्यस्त्रीके संयम तथा मक्तिके अभाव' का समर्थन नहीं कर सकते हैं, कारण कि द्रव्यस्त्रीके संयम तथा मुक्तिका निषेध विषयक मान्यताके सदभावमें दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार वेदवैषम्यके आधारपर जैनधर्मकी 'पर्याप्त मनुष्यणीके चौदह गुणस्थानोंकी प्राप्ति विषयक मूल्यमान्यता'का समन्वय तो किया जा सकता है परन्तु इसके (वेदवैषम्यके) आधारपर यह तो किसी हालतमें नहीं कहा जा सकता है कि द्रव्यस्त्रीके आदिके पाँच गुणस्थानोंको छोड़कर ऊपरके प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार प्रोफ़ेसर हीरालालजीके बारे में भी हम यह निवेदन कर देना उचित समझते हैं कि भले ही षट्खण्डागमग्रन्थमें द्रव्यस्त्रीके लिये आदिके पाँच गणस्थान तक प्राप्त कर सकनेका स्पष्ट उल्लेख न हो, परन्तु वहाँपर ऐसा उल्लेख भी तो स्पष्ट नहीं है कि द्रव्यस्त्रीके भी चौदह गुणस्थान हो सकते है, इसलिये षट्खण्डागमकी सत्प्ररूपणाके ९३३ सूत्रकी धवलाटीका कितनी ही अर्वाचीन क्यों न हो, उसे षट्खण्डागमके आशयके विपरीत आशयको प्रकट करनेवाली तो किसी भी हालतमें नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार षटखण्डागमग्रन्थमें बतलायी गयी मनुष्यणीके चौदह गणस्थानोंकी प्राप्तिका अर्थ वेदवैषम्यकी असंभवताके आधारपर 'द्रव्यस्त्रोके चौदह गुणस्थानोंकी प्राप्ति' आगमकी मान्यता न होकर प्रोफ़ेसर सा० की ही मान्यता कही जा सकती है क्योंकि श्वेताम्बर ओर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें जब वेदवैषम्य स्वीकर किया गया है तो इसपर (वेदवैषम्यकी असंभवतापर) आगमकी छाप किसी भी हालतमें नहीं लगाई जा सकती है। तात्पर्य यह है कि वेदवैषम्य संभव है या नहीं ?' यह एक ऐसा प्रश्न है जैसे कि 'शरीरसे भिन्न जीव नामका कोई स्वतंत्र पदार्थ है या नहीं ?' 'जीवकी मुक्ति होती है या नहीं ?' 'स्वर्ग, नरक आदि वास्तविक हैं या काल्पनिक ?' आदि प्रश्न हैं क्योंकि इन प्रश्नोंके समान ही यह प्रश्न भी आगमको संदिग्ध कोटिमें रख देनेके बाद ही उठ सकता है। इसलिये इस प्रश्नके बारे में विचार करना मानों वेदवैषम्यको मानने वाला आगम प्रमाण है या अप्रमाण ? इस प्रश्नके बारेमें ही विचार करना है । यद्यपि इस प्रश्नपर विचार करनेको हम बुरा नहीं समझते हैं परन्तु इस लेखके लिखते समय हमारे भतीजे श्री पं० बालचन्द्रजी शास्त्री सहसम्पादक धवलाके द्वारा हमें जो सिद्धान्त-समीक्षा भाग १-२ प्राप्त हुए हैं उनमेंसे पहले भागके ऊपर दृष्टि डालनेसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि वेदवैषम्य सम्भव है या नहीं ? इस प्रश्नके विचारके झमेले में पड़कर 'द्रव्यस्त्रीको मुक्ति हो सकती है या नहीं ?' यह प्रश्न सर्वसाधारणके लिये और भी जटिल बन गया है। . हम पहले कह आये हैं कि द्रव्यस्त्रीके छठा आदि गुणस्थान हो सकते हैं या नहीं ? इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये संयमके लिये वस्त्रत्याग आवश्यक है या नहीं ? इस प्रश्नका समाधान हो जाना ही साधारण जनताके लिये सीधा और सरल आय है। यद्यपि विद्वानोंने इस प्रश्नपर भी बहुत कुछ विचार किया है और पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारसका भगवान महावीरका अचेलक धर्म' शीर्षक ट्रैक्ट इस विषयका काफ़ी महत्त्वपूर्ण ट्रैक्ट माना जाता है। परन्तु अभी तक इस विषयका उभय-पक्षसम्मत कोई निर्णय सामने नहीं है। इस विषयमें हमारे विचार निम्न प्रकार हैं शरीरके सद्भावकी तरह वस्त्रके सद्भावमें भी संयम रह तो सकता है परन्तु वस्त्रग्रहण उसका विरोधो अवश्य है, कारण कि ग्रहणका अर्थ स्वीकृति है और जहाँ वस्त्रकी स्वीकृति मौजूद है वहाँ वस्त्रसम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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