Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
आश्चर्य हआ कि बम्बईकी दिगम्बर समाजने इस सारहीन वक्तव्यका प्रोफेसर साहबके वक्तव्यके विरुद्ध प्रकाशित पुस्तकमें उपयोग करना उचित समझा है। क्या पं० हीरालालजीने ग्रन्थ प्रकाशित हो जानेके बाद उस टिप्पणीको नहीं देखा होगा? और जिस वाक्यांशका उनकी दृष्टिसे भ्रामक अर्थ छपा है उसके बारे में क्या वे फुटनोट द्वारा अपना अभिप्राय प्रकट नहीं कर सकते थे? यदि उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया हो, तो वे समाचारपत्रों द्वारा अपनो सम्मति उसी समय समाज पर प्रकट नहीं कर सकते थे? उन्होंने ऐसा नहीं किया, इसका अर्थ यह करना अनुचित नहीं माना जायगा कि पं० हीरालाल जी "जैसी चले वयार पीठ पनि तैसी दीजै' की नीतिका अनुसरण करना जानते हैं । इसी तरह बम्बईकी दिगम्बर जैन सम भी कहा जा सकता है कि उसने श्री पं० हीरालालजीके उक्त स्पष्टीकरणको प्रोफेसर साहबके विरू हथियार बनाकर 'अर्थी दोषं न पश्यति' की नीतिको चरितार्थ किया है।।
उभय पक्षकी ऐसी बहुत-सी मिसालें यहाँ पर उद्धृत की जा सकती हैं, जिन्होंने विषयको निष्कर्ष पर पहँचानेकी अपेक्षा हानि ही अधिक पहँचाई है। विचार-विनिमयसे उभय पक्षको जितना एक-दूसरेके निकट आना चाहिए था उक्त दूषित नीतिका अनुसरण करनेके कारण वे उतनी ही दूरी पर चले गये हैं। और यह सभीके लिये अत्यन्त खेदकी बात होना चाहिये, कारण कि ऐसो प्रवृत्तियोंसे उभय पक्षका गौरव नष्ट होता है और सर्वसाधारणके अहितकी सम्भावना रहती है । इसीलिये हमने यहांपर संक्षेपमें उभय पक्षकी दृषित मनोवृत्तिको परिचायक कुछ प्रवृत्तियोंका संकेत किया है, ताकि उभय पक्ष अज्ञान, प्रमाद अथवा और किसी हेतुसे की गयी अपनी दूषित प्रवृत्तियोंकी ओर दृष्टिपात कर सके तथा अपनी बौद्धिक शक्तिका उपयोग धर्म, संस्कृति
और समाजके हितसाधनमें कर सके। हम आशा करते हैं कि जब तक प्रोफेसर साहबके वक्तव्यमें निर्दिष्ट विवाद-ग्रस्त विषय एक निष्कर्ष पर न पहँचा दिये जायें, तब तक उभय पक्षकी चर्चा व्यक्तिको छोड़कर विषय तक ही सीमित रहेगी।
बम्बईकी दिगम्बर जैन समाजकी ओरसे प्रोफेसर साहबके वक्तव्यके विरुद्ध यद्यपि हमारे सामने मौजूदा दो पुस्तकें प्रकाशित हुई है। परन्तु इतने मात्रसे दिगम्बर समाजका उद्देश्य सफल नहीं हो सका है और हमारी धारणा है कि इस प्रकारके प्रयत्नों द्वारा कभी भी उद्देश्यमें सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती है। हमारी राय है कि उद्देश्यको सफलताके लिये उभय पक्षकी ओरसे सिलसिलेवार उत्तर-प्रत्युत्तर स्वरूप चलनेवाली एक लेखमालाकी हो स्वतन्त्र व्यवस्था होना चाहिये । हमारी हार्दिक इच्छा है कि इस प्रकारकी व्यवस्था करनेका भार विद्वत् परिषदको अपने ऊपर ले लेना चहिये, साथ ही उसका कर्तव्य है कि वह प्रोफ़ेसर साहबके . साथ इस विषयके निर्णयमें भाग लेनेके लिये दिगम्बर समाजकी ओरसे कुछ विद्वानोंकी एक उपसमिति कायम करें और कोई भी विद्वान प्रोफेसर साहबके वक्तव्यके विरोधमें जो कुछ लिखे, वह इस उपसमितिकी देखरेख में ही प्रकाशित हो, क्योंकि प्रायः सभी विद्वानोंमें किसी-न-किसी उद्देश्यको लेकर कुछ-न-कुछ लिखनेकी आकांक्षा पैदा होना स्वाभाविक बात है और यदि एक ही पक्षका समर्थन करनेवाले दो विद्वान एक ही विषयमें अज्ञान अथवा प्रमादकी वजहसे भिन्न-भिन्न विचार प्रगट कर जाते हैं तो विषयका निर्णय करना बहुत ही जटिल हो जाता है। हम देखते हैं कि पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार और पं० रामप्रसादजी शास्त्री बम्बई (जिन्हें स्वयं अपनी विद्वत्तापर पूर्ण विश्वास है और समाज भी योग्य विद्वानोंमें जिनकी गणना करती है) अपने लेखोंमें षट्खण्डागमकी सत्प्ररूपणाके ९३वे सूत्रकी धवला-टीकाके कुछ अंशोंका परस्पर भिन्न अनुवाद कर गये हैं और प्रोफेसर साहबके बक्तव्यके विरोधर्म बम्बई दिगम्बर जैन सम प्रकाशित दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पणके दोनों भागोंका सम्पादन करते समय भी इसकी ओर लक्ष्य नहीं
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