Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 570
________________ ५ / साहित्य और इतिहास : १३ साहित्य और ग्राह्यताकी कमी नहीं है, किन्तु उसके साहित्यके अन्तस्तत्त्व तक पहुँचनेके लिये हम असमर्थ हो गये है तथा राजाश्रय छूट गया है इत्यादि हैं। भाषा स्वभावसे परिवर्तनशील होती है। राजाश्रयके बिना उसकी व्यावहारिक उपयुक्तता कम हो जाती है, अतः वह हमारे लौकिक कार्योंमें विशेष सहायक नहीं बन सकती है । यदि संस्कृतभाषा राजभाषा होती और उसके आश्रयसे ही लोग (जबकि हम लोगोंने नौकरी पेशा की ही अपना जीवनोपाय बना लिया है) लौकिक आवश्यक कार्योंका सम्पादन करते होते, तो मालूम पड़ता कि उस भाषाके अन्दर प्रवेश होनेसे हमारा जीवन कितनी धार्मिकताके साथ व्यतीत हो सकता था, तथा हमारे संस्कारोंमें कितनी आर्यताकी संस्कृतिका विकास होता, जिसके कि ह्राससे आज हम गुलाम हो रहे हैं। संस्कृतव्याकरणमें जैन व्याकरण और उसका महत्त्व तथा ग्राह्यता भारतमें जितने दर्शनोंका आविष्कार हआ है, उन्होंने संस्कृत भाषाको जरूर अपनाया है। इसका कारण उसकी व्यापकता और अर्थपूर्ण भाव द्योतकता है। यह मानी हुई बात है कि जो जिस विषयका पूरा विद्वान है. वह उस विषयको दूसरों के सामने स्वतंत्र ढंगसे पेश करता है. तथा जो जिस मतको अपना हितकर समझता है और उसके पोषक जितने विषय उसे आवश्यक प्रतीत होते हैं, उनमें दूसरे मतोंकी अपेक्षा रखना वह पसन्द नहीं करता, क्योंकि वह समझता है कि इस थोड़ी-सी परतन्त्रतासे हमारी संस्कृतिमें दुर्बलता आती है, अतः उसके अंग उपायभूत साहित्यका भी निर्माण वह स्वयं करता है और इस गौरवान्वित महत्त्वाकांक्षासे साहित्यका कलेवर परिपुष्ट होता है । यद्यपि व्याकरण शब्दार्थज्ञानके लिये है, उससे किसी मतविशेषकी पुष्टि नहीं होती, भले ही उसका निर्माता किसी मतविशेषसे सम्बन्ध रखता हो, फिर भी अपना स्वतन्त्र व्याकरण नहीं होनेसे कोई भी मतावलम्बी अपने लिये व अपने सिद्धान्तके लिये प्रभावित नहीं कर सकता है । इसके ऊपर पराधीनता, अर्वाचीनता आदि दोषोंका ( चाहे वह मत स्वतंत्र व प्राचीन क्यों न हो ) आरोप लगाया जाता है । इसी कारणसे संस्कृतभाषासम्बन्धी नाना व्वाकरणोंका आविष्कार हुआ है । उनमें प्रसिद्ध व्याकरणों और उनके निर्माताओंका निर्देश निम्न प्रकार पाया जाता है ऐन्द्र, चान्द्र, काशकत्स्नं, कौमारं, शाकटायनम् । सारस्वतं, चापिशलं, शाकलं पाणिनीयकम् ।। १ ।। इन्द्रश्चन्द्रः काशकत्स्ना पिशली शाकटायनः पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ।। २ ॥ पहले पद्यमें नव व्याकरणोंके नाम हैं। उनमें शाकटायनव्याकरण शाकटायननामके जैनाचार्यकृत है । दुसरे पद्यमें आठ वैय्याकरणोंके नाम हैं, जिनमें शाकटायन और जैनेन्द्र ये दो जैन वैय्याकरण हैं। इन सब व्याकरणों व वैय्याकरणोंमें कौन किससे प्राचीन है, इसका निर्णय पद्यके निर्देशक्रमसे निश्चित नहीं कर सकते है. क्योंकि पहले पद्य में आपिशल व्याकरणका शाकटायन व्याकरणके पश्चात निर्देश किया है और दुसरे पद्य में उनके निर्माताओंका पूर्व निर्देशसे विपरीत निर्देश किया है। इनकी प्राचीनताका विशेष निर्णय तो इस समय इतिहासवेत्ताओं पर ही छोड़ता हूँ क्योंकि मेरी गति इतिहासविषयक नहीं है। किन्तु इतना अवश्य कह सकता है कि पाणिनीय व्याकरणसे शाकटायन व्याकरण पूर्वका होना चाहिये, क्योंकि पाणिनिने अपने व्याकरणमें "त्रिप्रभतिषु शाकटायनस्य" इस सूत्रके द्वारा शाकटायनका निर्देश किया है। आपिशल, काशकृत्स्न, शाकल आदि व्याकरणकर्ताओंका भी निर्देश पाणिनिने अपने ग्रंथोंमें किया है। इसलिये ये व्याकरण भी पाणिनि व्याकरणसे प्राचीन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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