Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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७६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य
लोकाकाशमें सर्वदा अवस्थित रहता है । प्राणियोंकी मन, वचन और शरीरके जरिये पुण्य एवं पापरूप कार्यो में जो प्रवृत्ति देखी जाती है उस प्रवृत्तिसे उस कार्माणवर्गणाके यथायोग्य बहतसे परमाणुओंके पुंज-के-पुंज उन प्राणियोंके शरीरमें रहने वाले चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके साथ चिपट जाते हैं अर्थात् अग्निसे तपा हुआ लोहेका गोला पानीके बीचमें पड़ जानेसे जिस प्रकार चारों ओरसे पानीको खींचता है उसी प्रकार अपने मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्यों द्वारा गरम हआ (प्रभावित) उक्त चितशक्तिविशिष्टतत्त्व समस्त लोकमें व्याप्त काणिवर्गणाके बीचमें पड़जानेके कारण चारों ओरसे उस काणिवर्गणाके यथायोग्य परमाणुपंजोंको खींच लेता है और इस तरहसे कार्माणवर्गणाके जितने परमाणपंज जवतक चितशक्तिविशिष्टतत्त्वोंके साथ चिपटे रहते हैं तबतक उन्हें जैनदर्शनमें 'कर्म' नामसे पुकारा जाता है तथा इस कर्मसे प्रभावित होकरके ही प्रत्येक प्राणी अपने मन, वचन और शरीर द्वारा पुण्य एवं पापरूप कृत्य किया करता है अर्थात् प्राणियोंकी उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति करानेवाले ये कर्म ही है। प्राणियोंकी पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति करा देनेके बाद इन कर्मोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है और ये उस हालतमें चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वं होकर अपना वही पुराना कार्माणवर्गणाका रूप अथवा पृथ्वी आदि स्वरूप दूसरा और कोई पौद्गलिक रूप धारण कर लेते हैं।
यहांपर यह खासतौरसे ध्यानमें रखने लायक बात है कि इन कर्मोके प्रभावसे प्राणियोंकी जो उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्योंमें प्रवृत्ति हुआ करती है उस प्रवृत्तिसे उन प्राणियोंके अपने-अपने शरीरमें रहनेवाले चितशक्तिविशिष्टतत्त्व काणिवर्गणाके दुसरे यथायोग्य परमाणपुजोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं और इस तरहसे चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी पूर्वोक्त शरीरसम्बन्धपरम्पराकी तरह उसमें कारणभूत कर्मसम्बन्धका परम्परा भी अनादिकालसे अविच्छिन्नरूपमें चली आ रही है । अर्थात् जिस प्रकार वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्ष की उत्पत्ति होते हुए भी उनकी यह परम्परा अनादिकालसे अविच्छिन्न रूपमें चली आ रही है उसी प्रकार कर्मसम्बन्धसे चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंका शरीरके साथ सम्बन्ध होता है। इस सम्बद्धशरीरकी सहायतासे प्राणी पुण्य एवं पापरूप कार्य किया करते हैं। उन कार्योंसे उनके साथ पुनः कर्मोका बन्ध हो जाता है और कर्मोंका यह बन्धन उन्हें दूसरे शरीरके साथ सम्बद्ध करा देता है। इस तरहसे यह कर्मसम्बन्धपरम्परा भी अनादिकाल से अविच्छिन्न रूपमें चलती रहती है।
इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरके साथ चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके आबद्ध होनेका कारण सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक जैन और बौद्ध इन सभी दर्शनोंमें स्वरूप तथा कारणताके प्रकारकी अपेक्षा यद्यपि यथायोग्य भिन्न-भिन्न बतलाया गया है तथापि इस बातमें ये सभी दर्शन एकमत है कि शरीरके साथ चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके आबद्ध होनेका कारण अतिरिक्त पदार्थ है।
(४) उल्लिखित तीन सिद्धान्तोंके साथ-साथ एक चौथा जो सिद्धान्त इन दर्शनों में स्थिर होता है वह यह है कि जब चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंका शरीरके साथ संबद्ध होना उनसे अतिरिक्त कारणके अधीन है तो इस शरीरसंबंधपरंपराका उक्त कारणके साथ-साथ मूलतः विच्छेद भी किया जा सकता है। परन्तु इस चौथे सिद्धान्तको मीमांसादर्शनमें नहीं स्वीकार किया गया है क्योंकि पहले बतलाया जा चुका है कि मीमांसादर्शनमें शरीरसम्बन्धमें कारणभूत अशुद्धिके सम्बन्धको अनादि होनेके सबब अकारण स्वीकार किया गया है । इसलिये उसकी मान्यताके अनुसार इस सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद होना असंभव है।
इन सिद्धान्तोंके फलित अर्थके रूपमें निम्नलिखित पाँच तत्व कायम किये जा सकते है-(१) नाना चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व, (२) इनका शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसार, (३) संसारका कारण, (४) संसारका सर्वथा विच्छेद स्वरूपमुक्ति और (५) मुक्तिका कारण ।
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