Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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६६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
प्रकारसे नाना पर्यायोंमें बदलता रहता है। इस प्रकार वस्तुके द्रव्यांशकी एकता और उसके गुणांशकी अनेकताके आधार पर, वस्तुके द्रव्यांशकी एकता और उसके पर्यायांशकी अनेकताके आधार पर तथा वस्तुके गुणांशकी एकता और उसके पर्यायांशकी अनेकताके आधारपर जैनदर्शनमें यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है ।
आचार्यश्री अमृतचन्द्रने तीसरे प्रकारका अनेकान्त यह बतलाया है कि “जो ही सत् है वही सत् नहीं है अर्थात् असत् है" । इसका स्पष्टोकरण इस प्रकार है कि प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका निर्णय द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भावके आधार पर हुआ करता है। इनमेंसे द्रव्यके आधारपर वस्तकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि यद्यपि घटरूपसे परिणत पदगलद्रव्य पटरूपसे परिणत होनेकी योग्यता रखते है, परन्तु जिस समय जो पुद्गलद्रव्य घटरूपसे परिणत हो रहे हैं उस समय वे पटरूपसे परिणत नहीं हो रहे हैं इसलिये जिस समय जिस वस्तुमें घटरूपताका सद्भाव है उस समय उस वस्तुमें पटरूपताका अभाव है। इस तरह घटरूपसे परिणत वस्तु घटरूपसे ही सत् है पटरूपसे वह सत् नहीं है अर्थात् असत् है। क्षेत्रके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि जो वस्तु जिस समय आकाशके जिन और जितने प्रदेशोंपर अवस्थित है वह वस्तु उस समय आकाशके उन और उतने प्रदेशों पर ही सत् कही जा सकती है उन और उतने प्रदेशोंसे अतिरिक्त अन्य सभी आकाशप्रदेशोंपर वह वस्तु उस समय असत् ही कही जायगी। कालके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि यद्यपि प्रत्येक वस्तु स्वभावसे कालिक सत्स्वरूप है परन्तु जो वस्तु जिस समय जिन कालद्रव्योंसे संयुक्त है उस समय वह वस्तु उन कालाणुओंकी अपेक्षा ही वर्तमान रूपमें सत् है शेष अन्य सभी कालाणुओंकी अपेक्षा उस समय वह वर्तमान रूपमें सत् नहीं है अर्थात् असत् है। भावके आधारपर सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि जो वस्तु जिस समय अपनी जिस अवस्था (पर्याय) को धारण किये हुए है उस समय वह वस्त उस अवस्था (पर्याय) की अपेक्षा सतह शेष अन्य सम्भव सभी पर्यायोंको अपेक्षा वह सत् नहीं अर्थात् असत है । इन सभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारपर जो प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका निर्णय होता है वह व्यवहारकालको समय, आवली, मुहूर्त, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष आदिके रूपमें विभक्त करके उनके आधार पर ही होता है। .
___आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने चौथे प्रकारका जो अनेकान्त बतलाया है वह यह है कि "जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है"। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि प्रत्येक वस्तु अपनी आकृति अर्थात् द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता) और प्रकृति अर्थात् गुणरूपता (स्वभावशक्ति) की अपेक्षा शाश्वत बनी हुई है तथा विकृति अर्थात् पर्यायरूपता (परिणति-क्रिया) की अपेक्षा व्यवहारकालके भेद--- समय, आवली, मुहर्त, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर अशाश्वत बनी हुई है। यही कारण है कि जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तको द्रव्यरूपता और गुणरूपताके आधारपर ध्रौव्यस्वभाववाली तथा पर्यायरूपताके आधारपर उत्पाद और व्यय स्वभाववाली माना गया है। इनमें से ध्रौव्यस्वभाव वस्तुकी नित्यताका चिह्न है और उत्पाद और व्ययरूप स्वभाव उसकी अनित्यताका चिह्न है ।
___ जिस प्रकार आचार्य श्री अमृतचन्द्रने वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हुए परस्परविरोधी धर्मद्वयके आधारपर अनेकान्तके तत्-अतत, एक-अनेक, सत-असत और नित्य-अनित्य ये चार विकल्प बतलाये है उसी प्रकार उन्होंने समयसारकी गाथा १४२ की टीका करते हए आत्माका अवलम्बन लेकर परस्परविरोधी धर्मद्वयके आधारपर बद्ध-अबद्ध, मोही-अमोही, रागी-अरागी, द्वेषी-अद्वषी आदि विविध प्रकारके और भी विकल्प बतला दिये हैं।
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