Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
जैनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप : एक दार्शनिक विश्लेषण
जैनदर्शनमें वस्तुको अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तात्मक उभयरूप माना गया है। एक ही वस्तुमें एक ही साथ अनन्तधर्मोंका पाया जाना वस्तुको अनन्तधर्मात्मकता है और अनन्तधर्मात्मक उसी वस्तूमें परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंका पाया जाना वस्तुकी अनेकान्तात्मकता है। इस कथनका तात्पर्य यह है कि विश्वकी सभी वस्तुयें अपने अन्दर अपने-अपने पृथक्-पृथक् अनन्तधर्मोकी एक ही साथ सत्ता रख रही हैं व प्रत्येक वस्तुके अपने-अपने उन अनन्तधर्मोमेंसे प्रत्येक धर्म अपने विरोधी धर्मके साथ ही वहाँ पर रह रहा है।
अनेकान्तशब्दका ऊपर जो “वस्तुमें परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंका पाया जाना" अर्थ किया गया है उसमें अनेकशब्दका तात्पर्य दो संख्यासे है। इस तरह अनेकान्त शब्दका वास्तविक अर्थ "वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोंका एक ही साथ पाया जाना" होता है। यह अर्थ वास्तविक इसलिये है कि परस्पर विरोधिता दो धर्मों में ही संभव है, तीन, चार आदि संख्यात, असंख्यात व अनन्त धर्म मिलकर कभी परस्पर विरोधी नहीं होते हैं, कारण कि एक धर्मका विरोधी यदि दूसरा एक धर्म है तो शेष सभी धर्म परस्पर विरोधी उन दो धर्मोंमेंसे किसी एक धर्मके नियमसे अविरोधी हो जावेंगे।
उपर्युक्त कथनसे यह बात सिद्ध होती है कि वस्तुका अनन्तधर्मात्मक होना एक बात है और उसका (वस्तुका) अनेकान्तात्मक हो ना दूसरी बात है। यही कारण है कि जनेतर सभी दर्शनकारोंके लिये वस्तुको अनन्तधर्मात्मक माननेमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि पृथ्वीमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप धर्मचतुष्टयकी एक ही साथ सत्ताको वे भी स्वीकार करते हैं । परन्तु वे (जनेतर दर्शनकार) वस्तुको अनेकान्तात्मक माननेमें हिचकिचाते हैं । जैन और जैनेतर दर्शनकारोंके मध्य मुख्यतया अन्तर यही है कि जहाँ उक्त प्रकारके अनेकान्तको मान्यताके आधारपर जैनदर्शन अनेकान्तवादी कहलाता है वहाँ जैनेतर सभी दर्शन उसका विरोध करनेके कारण एकान्तवादी कहलाते हैं।
इस कथनका तात्पर्य यह है कि परस्पर अविरोधी अनन्त धर्मोंकी एक ही साथ एक ही वस्तुमें सत्ता जैन और जैनेतर सभी दर्शनों में मान्य कर ली गयी है । परन्तु परस्परविरोधी दो धर्मोकी एक ही साथ एक हो वस्तुमें सत्ता जिस प्रकार जैन दर्शनमें मान्य की गयी है उस प्रकार जैनेतर दर्शन उसे मान्य करनेके लिये तैयार नहीं हैं । यह बात दूसरी है कि परस्परविरोधी दो धर्मों से किसी एक धर्मको कोई एक दर्शन स्वीकार करता है और उससे अन्य दूसरे धर्मको दूसरा दर्शन स्वीकार करता है लेकिन दोनों ही दर्शन अपनेको मान्य धर्म के विरोधी धर्मको अस्वीकृत कर देते हैं। जैसे सांख्यदर्शन वस्तुमें नित्यताधर्मको स्वीकार करता है लेकिन अनित्यताधर्मका वह निषेध करता है। इसी प्रकार बौद्धदर्शन वस्तुमें अनित्यताधर्मको स्वीकार करता है लेकिन नित्यताधर्मका वह निषेध करता है। जबकि जैनदर्शन वस्तुमें नित्यता और अनित्यता दोनों ही धर्मोको स्वीकार करता है। - वस्तुके अनन्त धर्मात्मक होने व उसमें (वस्तुमें) उन अनन्त धर्मो से प्रत्येक धर्मके अपने विरोधी धर्मके साथ ही रहनेके कारण प्रत्येक वस्तुमें परस्परविरोधी धर्मयुगलके अनन्त विकल्प हो जाते हैं। यही कारण है कि जैन दर्शनमें प्रत्येक वस्तुगत अनन्त धर्म सापेक्ष परस्परविरोधी धर्मयुगलके अनन्तविकल्पोंके आधार पर अनन्तसप्तभंगियोंकी स्थितिको स्वीकार कर लिया गया है । यथा
"नन्वेकत्र वस्तुन्यनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यानामुपगमादनन्ता एव वचन-मार्गाः स्याद्वादिनाँ भवेयुर्न पुनः सप्तैव, वाच्येयत्तात्वाद्वाचकेयत्तायाः। ततो विरुद्धैव सप्तभंगीति चेन्न,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org