Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४ / दर्शन और न्याय ६१
करता है और तब दर्शनको भी उस उस इन्द्रियका दर्शन कहा जाता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक हुआ करता है, अतः उसके लिये दर्शनके सद्भावकी आवश्यकता नहीं रहती है। अवधिज्ञानमें दर्शनको आवश्यकता रहती है अर्थात् प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में प्रतिनियत पदार्थोंका बिना इन्द्रियोंकी सहायताके जो प्रतिबिम्ब आता है उसके सद्भावमें अवधिज्ञान हुआ करता है ऐसे प्रतिबिम्बको अवधिदर्शन कहते हैं । मन:पर्ययज्ञान ईहामतिज्ञान पूर्वक हुआ करता है, अतः ईहामतिज्ञानमें जिस दर्शनकी अपेक्षा रहती है वही दर्शन मन:पर्ययज्ञानके समय विद्यमान रहता है।
इस विवेचनका निष्कर्ष यह है कि
१. एक पदार्थ या नाना अथवा संपूर्ण पदार्थोंका आत्मप्रदेशोंमें इन्द्रिय आदि निमित्तसापेक्ष अथवा निमित्तकी अपेक्षारहित प्रतिबिम्बित होना ही दर्शन कहलाता है।
२. इस प्रकारके दर्शनके सद्भावमें ही सर्वज्ञ और अल्पक्ष दोनों तरहके जीवोंको पदार्थज्ञान हुआ करता है अन्यथा नहीं ।
३. प्रतिनियत दर्शन ही प्रतिनियत पदार्थज्ञानमें कारण हुआ करता है। उक्त दर्शन सामान्यग्रहणरूप है क्योंकि उसमें ज्ञानकी तरह प्रमाणता और अप्रमाणताका विशेष (भेद) नहीं पाया जाता है और इसका कारण हम पहले बतला आये हैं कि दर्शन में स्वपरव्यवसायात्मकताका सर्वथा अभाव पाया जाता है जबकि स्वपरव्यवसायात्मकता प्रमाणताका तथा स्वव्यवसायात्मकताके रहते हुए परव्यवसायात्मकताका अभाव अप्रमाणताका • चिह्न माना जाता है । तात्पर्य यह है कि उक्त दर्शनमें पदार्थका अवलम्बन होने की वजहसे वह पदार्थग्रहणरूप तो होता है फिर भी वह द्रष्टाको अपना संवेदन कराने में असमर्थ रहता है और जो अपना संवेदन नहीं करा सकता है वह परका संवेदन कैसे करा सकता है ? इसलिये दर्शनको "सामान्यग्रहण" शब्दसे पुकारना उपयुक्त ही है। ज्ञान चाहे प्रमाण हो या चाहे अप्रमाण हो - उसमें स्वसंवेदकता तो हर हालत में रहती ही है अतः उसे ( ज्ञानको ) "विशेषग्रहण" शब्दसे पुकारा जाता है। उक्त दर्शनको निराकार भी कहते हैं क्योंकि उसमें पूर्वोक्त प्रकार से स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनोंका अभाव होनेके कारण न तो प्रमाणताका आकार पाया जाता है और न अप्रमाणताका ही आकार पाया जाता है। इसी प्रकार उक्त दर्शनको अव्यवसायात्मक भी कहते हैं। क्योंकि हम बतला चुके हैं कि उसमें स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनोंका अभाव रहता है जबकि प्रमाणज्ञानमें स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनोंका सद्भाव और अप्रमाणज्ञानमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी कम-से-कम स्वसंवेदकताका सद्भाव पाया जाता है। इस प्रकार जो अव्यवसायात्मक होता है यह सविकल्पक नहीं हो सकता है इसलिये दर्शनको "निर्विकल्पक शब्दसे भी पुकारा जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पड़ेको विषय करनेवाले प्रमाणज्ञान में ''मैं घड़ेको जानता हूँ" ऐसा विकल्प और उक्त ज्ञानके विषयभूत घड़े में "यह घड़ा है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है तथा अप्रमाणज्ञान के भेद संशय, विपरीत और अनध्यबसाय इन तीनोंमें क्रमसे "सोप है या चांदी" या सीपमें "यह चांदी है" अथवा "कुछ है" इस प्रकार वस्तुकी अनिर्णीत अवस्थाका रूप ज्ञानविकल्प और विषयविकल्प ज्ञाताको होते रहते है उस प्रकार घड़ा आदि पदार्थोंके उक्त प्रकारके दर्शनमें "मैं घड़ेका दर्शन कर रहा हूँ" या "यह घड़ा है" आदि विकल्पोंका होना संभव नहीं है. क्योंकि पूर्वोक्त प्रकारसे दर्शन में स्वव्यसायात्मकता और परव्यवसायात्मकता दोनोंका अभाव विद्यमान रहता है। अतः दर्शनको निर्विकल्पक कहा गया है। इस प्रकार दर्शन और ज्ञान में सामान्य और विशेष निराकार और साकार अव्यवसायात्मक और व्यवसायात्मक तथा निर्विकल्पक और सविकल्पकका भेद रहते हुए भी इन दोनों का एक काल में एक साथ सद्भाव पाया जाना असंभव नहीं ठहरता है ।
आशा है दर्शनोपयोगके बारेमें मैने यहाँपर जो विचार उपस्थित किये हैं उनपर विद्वज्जनोंका अवश्य ही ध्यान जायगा ।
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