Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 517
________________ ५० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ पर प्रतिविम्बित शब्दका अर्थ स्वकी अपेक्षा दर्पण अथवा जीवकी तदात्मक स्थितिके रूपमें और अन्यपदार्थों की अपेक्षा दर्पण अथवा जीवकी उन अन्यपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली तदनुरूप परिणतिके रूपमें लेना चाहिये। जीवके स्वभावको समझनेके लिये यहाँ पर जो दीपक और दर्पण दोनोंको उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया गया है, इसका कारण यह है कि यद्यपि दीपकका स्वभाव अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करनेका है, परन्तु उन अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका स्वभाव नहीं है। इसी तरह यद्यपि दर्पणका स्वभाव अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिविम्बित करने का है, परन्तु उन अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करनेका उसका स्वभाव नहीं है जब कि जीव में दीपक और दर्पणकी अपेक्षा यह विशेषता पायी जाती है कि उसका स्वभाव दीपककी तरह अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् ज्ञान करनेका भी है और दर्पण की तरह अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका भी है। आगममें भी इसीलिये जीवके स्वभावको समझनेके लिये दीपक और दर्पण दोनोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। दोपक और जीव द्वारा अन्य पदार्थों के प्रतिभासित होनेका आधार देखने में आता है कि दीपक अन्य पदार्थोके साथ जब तक अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर लेता है तब तक वह उनको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करने में असमर्थ ही रहा करता है। इसी प्रकार जीवके सम्बन्धमें भी यह स्वीकार करना आवश्यक है कि वह भी जब तक अन्य पदार्थोके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर लेगा तब तक वह उनको प्रतिभासित अर्थात ज्ञात करने में असमर्थ ही रहेगा। परन्तु र वाद बात है कि जिस प्रकार दीपक अन्य पदार्थों के पास पहुँच कर उनसे अपना सम्बन्ध स्थापित करता है उस प्रकार जीव अन्य पदार्थोके पास पहुँच कर उनसे अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता है। अतः जैनदर्शनमें यह स्वीकार किया गया है कि जीवमें दर्पणकी तरह जब अन्य पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं तभी वह उनको दीपककी तरह प्रतिभासित अर्थात् ज्ञात करता है। इस विवेचनके आधारपर ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके सम्बन्धमें मैं यह कहना चाहता हूँ कि जीवमें दर्पणकी तरह पदार्थका प्रतिबिम्बित हो जाना ही दर्शनोपयोग है और इस प्रकारके दर्शनोपयोगपूर्वक जीवको दीपककी तरह पदार्थका प्रतिभासित अर्थात ज्ञान हो जाना ही ज्ञानोपयोग है। दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगमें कारण होता है--यह बात आचार्य नेमिचन्द्रने द्रव्यसंग्रहमें "दंसणपुव्वं गाणं" गाथांश द्वारा स्पष्ट कर दी है। उपर्युक्त कथनका समर्थन उपर्युक्त कथनके समर्थनमें यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शनमें वणित दर्शनोपयोग और बौद्धदर्शन में वर्णित प्रत्यक्षमें समानता पायी जाती है। इतना अवश्य है कि बौद्धदर्शनमें जहाँ उसके द्वारा माने गये प्रत्यक्षको प्रमाण माना गया है वहां जैनदर्शनमें उसके द्वारा माने गये दर्शनोपयोगको प्रमाणता और अप्रमाणताके दायरेसे परे रखा गया है। इसका कारण यह है कि जैनदर्शनमें स्वपरव्यवसायीको प्रमाण माना गया है और जो स्वव्यवसायी होते हए भी परव्यवसायी नहीं होता उसे अप्रमाण माना गया है। ये दोनों प्रकार १. जीवके स्वभावको समझनेके लिये परीक्षामुखमें "प्रदीपवत् ॥१-१२॥" सूत्र द्वारा दीपकको व पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें "तज्जयति परं ज्योति" इत्यादि पद्य द्वारा तथा रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें "नमः श्रीवर्द्धमानाय' इत्यादि पद्य द्वारा दर्पणको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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