Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४/वर्शन और न्याय : ५५
ज्ञान समयके भेदसे परिवर्तित होनेपर भी विषयके भेदसे कभी परिवर्तित नहीं होता है, क्योंकि उसका ज्ञान प्रथम क्षणमें पदार्थीको जिस रूपमें जानता है उसी रूपमें द्वितीयादि क्षणोंमें भी जानता है। परन्तु अल्पज्ञका ज्ञान विषयभेदके आधारपर सतत परिवर्तित होता रहता है। अर्थात् अल्पज्ञको कभी किसी इन्द्रियद्वारा किसी रूपमें पदार्थज्ञान होता है और कभी किसी इन्द्रियद्वारा किसी रूपमें पदार्थज्ञान होता है। इसी प्रकार एक ही इन्द्रियसे कभी किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है और कभी किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है। पदार्थज्ञानकी यह स्थिति अल्पज्ञके दर्शनोपयोगमें परिवर्तन माननेके लिये बाध्य कर देती है। तीसरी बात, जैसी कि पूर्व में स्पष्टकी गयी है, यह है कि आत्मामें पड़ने वाले पदार्थ प्रतिविम्बसामान्यका नाम दर्शनोपयोग नहीं है किन्तु आत्मामें पड़ने वाले पदार्थप्रतिविम्बविशेषका नाम ही दर्शनोपयोग है अर्थात् ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिके कारणभूत आत्मामें पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बका नाम ही दर्शनोपयोग है । इस प्रकार इन आधारोंसे अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें दोनोंकी उपयोगात्मकता और कार्यकारणभावके आधारपर दोनोंमें क्रम सिद्ध हो जाता है। अर्थात विशेषग्रहणके अवसरपर सामान्यग्रहणकी स्थिति उपयोगात्मकताके आधारपर क्षीण हो जाती है और कार्यकारणभावके आधारपर जैसे कषायका पूर्णरूपेण उपशम अथवा क्षय दशवें गुणस्थानके अन्त समयमें मानकर उसके अनन्तर समयमें उपशान्तमोह नामक एकादश गुणस्थानकी अथवा क्षीणमोह नामक द्वादश गुणस्थानको व्यवस्थाको आगममें स्वीकार किया गया है वैसे हो अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके क्रमको स्वीकार करना चाहिये तथा जैसे कषायके उपशम व क्षयके साथ आत्माकी उपशान्तमोहरूप अवस्थाके व क्षीणमोहरूप अवस्थाके सदभावकी अपेक्षा क्षणभेद नहीं है वैसा ही क्षणभेद सद्भावकी अपेक्षा अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें नहीं है । अर्थात् ज्ञानोपयोगके साथ दर्शनोपयोगका यदि सद्भाव न स्वीकार किया जाय तो ज्ञानोपयोगका आधार समाप्त हो जानेसे ज्ञानोपयोगका ही अभाव हो जायगा। दर्शनोपयोगका महत्त्व
यद्यपि पूर्व के विवेचनसे ज्ञानोपयोगके समान दर्शनोपयोगका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। फिर भी यहाँ अनेक प्रकारसे दर्शनोपयोगका महत्त्व स्पष्ट किया जा रहा है।
ज्ञान या ज्ञानोपयोपके अवस्थाओंके भेदके आधारपर आगममें पूर्वोक्त प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलके भेदसे बारह भेद बतलाये गये हैं और इन सबको प्रत्यक्ष और परोक्षके नामसे दो वर्गोंम गभित कर दिया गया है।
अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष क्यों है ? इस प्रश्नके समाधान स्वरूप आगममें जो कुछ प्रतिपादित है उसका सार यह है कि सब जीवोंमें पदार्थोके जाननेकी जो शक्ति विद्यमान है उसके आधारपर ही प्रत्येक जीव पदार्थोंका बोध किया करता है, जिस बोधका फल प्रवृत्ति, निवृत्ति अथवा उपेक्षाके रूपमें जोवको प्राप्त होता है। पदार्थोंका बोध सामान्यतया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका होता है। मतिज्ञानमें स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों अथवा मनकी सहायता अपेक्षित रहा करती है । श्रुतज्ञान केवल मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करता है तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना ही उत्पन्न हुआ करते हैं।
ज्ञानके उपयुक्त बारह भेदोंमें अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन सबको मतिज्ञानमें अन्तर्भूत कर दिया गया है तथा शेष श्रुत, अवधि, मनःपयय और केवल ये चार स्वतंत्र ज्ञान है । इनमेंसे अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष है, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क,
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