Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त: १७९ भेद संज्वलन कषायकी क्रोध प्रकृतिका भी उपशम या क्षय होनेपर उस जीवकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें चौथे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है ।
इस विवेचनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकाल से चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता है, परन्तु जब जिस भव्य जीवकी उस भाववती शक्तिका वह अदयारूप विभावपरिणमन यथास्थान उस उस क्रोध प्रकृतिका यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर यथायोग्य रूप में समाप्त होता जाता है तब उसके बलसे उस जीवकी उस भाववतीशक्तिका उत्तरोत्तर विशेषता लिये हुये शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्म के रूपमें दयारूप परिणमन भी होता जाता है । इतना अवश्य है कि उन उन क्रोध प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्यरूपमें होनेवाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम उस भव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासपूर्वक आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है ।
व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
भव्य जीवमें उपर्युक्त पाँचों लब्धियोंका विकास तब होता है जब वह जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तियोंको क्रियावती शक्तिके ही परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूपमें सर्वथा निवृत्तिपूर्वक करने लगता है । इन अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तियोंसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वककी जानेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिका नाम ही व्यवहारधर्मरूप दया है । इस तरह यह निर्णीत है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदयाके बलपर ही भव्य जीवमें भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धियोंका विकास होता है। इस तरह निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति व्यवहारधर्मरूप जीवदया कारण सिद्ध होती है ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कोई-कोई अभव्य जीव भी इस व्यवहारधर्मरूप दयाको अंगीकार करके अपने में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है । इतना अवश्य है कि उसकी स्वभावभूत अभव्यताके कारण उसमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास नहीं होता है । इस तरह उसमें भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विकास भी नहीं होता है । यहाँ यह भो ज्ञातव्य है कि भव्य जीवमें उक्त क्रोध प्रकृतियोंका यथासम्भव रूप में होनेवाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम यद्यपि आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है, परन्तु उसमें उस करणलब्धिका विकास क्रमशः क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चारों लब्धियोंका विकास होनेपर ही होता है | अतः इन चारों लब्धियोंको भी उक्त क्रोध प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण माना गया है ।
जीवकी भाववती और क्रियावती शक्तियों के सामान्य परिणमनोंका विवेचन
tant भाववती और क्रियावती दोनों शक्तियोंको प्रश्नोत्तर २ की समीक्षामें उसके स्वतः सिद्ध स्वभावके रूपमें बतलाया गया है। इनमेंसे भाववतीशक्ति के परिणमन एक प्रकारसे तो मोहनीयकर्मके उदयमें विभावरूप व उसके उपशम, क्षय या क्षयोपशम में शुद्ध स्वभावरूप होते हैं व दूसरे प्रकारसे हृदयके सहारे - पर तत्त्वश्रद्धानरूप या अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप या अतत्त्वज्ञानरूप होते हैं ।
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