Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त १८३ प्रवृत्तिरूप परिणमनोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्य जीवमें कर्मोके संबर और निर्जरणके कारण होते हैं। जीवको भाववती शक्तिके न तो शुभ और अशुभ परिणमन कर्मोंके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मोंके संवर और निर्जरण के कारण होते हैं। इसमें यह हेतु है कि जीवकी क्रियावती शक्तिका मन, वचन और कायके सहयोग से जो क्रियारूप परिणमन होता है उसे योग कहते हैं - ( " कायवाङ्मनः कर्मयोग : " त० सू० ६-१) | यह योग यदि जोवकी भाववती शक्तिके पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्वान और तत्वज्ञानरूप शुभ परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीवकी भाववती शक्तिके पूर्वोक्त अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते हैं । ( शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः अशुभ : " - सर्वार्थ सिद्धि ६-३) । यह योग ही कर्मोंका आस्रव अर्थात् बन्धका द्वार कहलाता है - ("स आसवः " त० सू० ६-२ ) । इस तरह जीवको क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरून परि मन ही कर्मों के आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप बन्धका कारण सिद्ध होता है ।
यद्यपि योगकी शुभरूपता और अशुभरूपताका कारण होनेसे जीवकी भाववती शक्तिके तत्त्वद्वान और तत्त्वज्ञान रूप शुभ परिणमनोंको व अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वधान रूप अशुभ परिणमनोंको भी कर्मोंके आस्रवपूर्वक अन्धका कारण मानना अयुक्त नहीं है। परन्तु कर्मोंके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशीमें रखी हुई तेजाबको भ्रमवश आँखकी दवाई समझ रहा है तो भी तबतक वह तेजाब रोगोकी आँखको हानि नहीं पहुँचाती हैं जब तक वह डाक्टर उस तेजाबको रोगीको आँखमें नहीं डालता है और जब डाक्टर उस तेजाबको रोगीको आँखमें डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगीकी आँखको हानि पहुँचा देती है । इसी तरह आँखकी दवाईको आँखकी दवाई समझकर भी जब तक डाक्टर उसे रोगीको आँखमें नहीं डालता है तब तक वह दवाई उस रोगी की आँखको लाभ नहीं पहुँचाती है। परन्तु जब डाक्टर उस दवाईको रोगीकी आँख में डालता है तो तत्काल वह दवाई रोगीको आँखको लाभ पहुँचा देती है । इससे निर्णीत होता है कि जीवकी क्रियावती पाक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन हो आस्रव और बन्धका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववती शक्तिका हृदय के सहारेपर होने बाला तत्वश्रद्वान रूप शुभ परिणमन या अतस्वध द्वानरूप अशुभ परिणमन व जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाला तत्वज्ञानरूप शुभपरिणमन या अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योगकी शुभरूपता और अशुभरूपतामें कारण होनेसे परम्परया आसव और बन्धमें कारण माने जा सकते हैं। परन्तु आस्रव और बन्धमें साक्षात् करण तो योग ही होता है ।
इसी प्रकार जीवकी क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनके निरोधको ही कर्मके संवर और निर्जरणमें कारण मानना युक्त है - ( "आस्रवनिरोधः संवर" त० सू० ९-१) जीवकी भाववती शक्तिके मोहनीय कर्मके यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाववती शक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमन मोहनीयकर्मके यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होनेके कारण संवर और निर्जराके कार्य होनेसे कमोंके संवर और निर्जरणमें कारण सिद्ध नहीं होते हैं। एक बात और है कि जब जीवको क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनोंसे कर्मोंका आस्वय होता है तो कमोंके संवर और निर्जरणका कारण योगनिरोधको ही मानना युक्त है। यही कारण है। कि जिस जीवमे गुणस्थानक्रमसे जितना जितना योगका निरोध होता जाता है उस जोवमें वहां उतना उतना कर्मोका संवर नियमसे होता जाता है तथा जब योगका पूर्ण निरोध हो जाता है तब कमौका संवर भी पूर्णरूप से हो जाता है। कमका संवर होनेपर बद्ध कर्मोंकी निर्जरा या तो निषेक रचनाके अनुसार सविपाक रूपमें
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