Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४ | दर्शन और न्याय : ४३
नात्मक रहती है । इसी प्रकार स्याद्वाद श्रोतासे अधिक सम्बन्ध रखता है; क्योंकि उसकी दृष्टि हमेशा उपयोगात्मक रहा करती है । वक्ता अनेकान्तवादके द्वारा नानाधर्मविशिष्ट वस्तुका दिग्दर्शन कराता है और श्रोता स्याद्वादके जरियेसे उस वस्तुके केवल अपने लिये उपयोगी अंशको ग्रहण करता है ।
इन कथनसे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिये कि वक्ता 'स्यात्' की मान्यताको और श्रोता ‘अनेकान्त' की मान्यताको ध्यानमें नहीं रखता है। यदि वक्ता 'स्यात्'की मान्यताको ध्यानमें नहीं रखेगा तो वह एक वस्तुमें परस्पर विरोधी धर्मोका समन्वय न कर सकनेके कारण उन विरोधी धर्मोका उस वस्तुमें विधान ही कैसे करेगा? ऐसा करते समय विरोधरूपी सिपाही चोरकी तरह उसका पीछा करनेको हमेशा तैयार रहेगा। इसी तरह यदि श्रोता ‘अनेकान्त' की मान्यताको ध्यानमें नहीं रखेगा तो वह दृष्टिभेद किस विषयमें करेगा? क्योंकि दृष्टिभेदका विषय अनेकान्त अर्थात् वस्तुके नानाधर्म ही तो हैं।
इसलिये ऊपरके कथनसे केवल इतना तात्पर्य लेना चाहिये कि वक्ताके लिये विधान प्रधान है-वह स्यातकी मान्यतापूर्वक अनेकान्तकी मान्यताको अपनाता है और श्रोताके लिये उपयोग प्रधान है-वह अनेकान्तकी मान्यतापूर्वक स्यात्की मान्यताको अपनाता है ।।
मान लिया जाय कि एक मनुष्य है, अनेकान्तवादके जरिये हम इस नतीजेपर पहुँचे कि वह मनुष्य वस्तुत्वके नाते नानाधर्मात्मक है--वह पिता है, पुत्र है, मामा है, भाई हैं आदि आदि बहुत कुछ है। हमने वक्ताकी हैसियतसे उसके इन सम्पूर्ण धर्मोंका निरूपण किया। स्याद्वादसे यह बात तय हुई कि वह पिता है स्यात्-किसी प्रकारसे-दृष्टिविशेषसे-अर्थात् अपने पुत्रकी अपेक्षा; वह पुत्र है, स्यात्-किसी प्रकार अर्थात् अपने पिताकी अपेक्षा; वह मामा है स्यात्-किसी प्रकार अर्थात् अपने भानजेकी अपेक्षा, वह भाई है स्यात्किसी प्रकार-अर्थात अपने भाईकी अपेक्षा
___ अब यदि श्रोता लोगोंका उस मनुष्यसे इन दृष्टियोंमेंसे किसी भी दृष्टिसे सम्बन्ध हैं तो वे अपनी-अपनी दृष्टिसे अपने लिये उपयोगी धर्मको ग्रहण करते जावेंगे। पुत्र उसको पिता कहेगा, पिता उसको पुत्र कहेगा, भानजा उसको मामा कहेगा और भाई उसको भाई कहेगा, लेकिन अनेकान्तवादको ध्यानमें रखते हए वे एक दूसरेके व्यवहारको असंगत नहीं ठहरावेंगे। अस्तु ।
इस प्रकार अनेकान्तवाद और स्याद्वादके विश्लेषणका यह यथाशक्ति प्रयत्न है। आशा है इससे पाठकजन इन दोनोंके स्वरूपको समझने में सफल होनेके साथ साथ वीर-भगवान्के शासनको गम्भीरताका सहज हीमें अनुभव करेंगे और इन दोनों तत्त्वोंके द्वारा सांप्रदायिकताके परदेको हटाकर विशुद्ध धर्मकी आराधना करते हुए अनेकान्तवाद और स्याद्वादके व्यावहारिक रूपको अपने जीवनमें उतारकर वीर-भगवान्के शासनकी अद्वितीय लोकोपकारिताको सिद्ध करने में समर्थ होंगे।
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