Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
४२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
स्याद्वाद शब्दके दो शब्दांश है-स्यात् और वाद। ऊपर लिखे अनुसार स्यात् और कथंचित् ये दोनों शब्द एक अर्थक बोधक है-कथंचित् शब्दका अर्थ है "किसी प्रकार" । यही अर्थ स्यात् शब्दका समझना चाहिये । वाद शब्दका अर्थ है मान्यता। "किसी प्रकारसे अर्थात् एकदृष्टिसे-एक अपेक्षासे या एक अभिप्रायसे", इस प्रकारकी मान्यताका नाम स्याद्वाद है । तात्पर्य यह कि विरोधी और अविरोधी नानाधर्मवाली वस्तुमें अमुक धर्म अमुक दृष्टिसे या अमुक अपेक्षा या अमुक अभिप्रायसे है तथा व्यवहारमें "अमुक कथन, अमुक विचार, या अमुक कार्य, अमुक दृष्टि, अ मुक अपेक्षा, या अमुक अभिप्रायको लिये हुए हैं"। इस प्रकार वस्तुके किसी भी धर्म तथा व्यवहारकी सामंजस्यताकी सिद्धिके लिये उसके दृष्टिकोण या अपेक्षाका ध्यान रखना ही स्याद्वादका स्वरूप माना जा सकता है। अनेकान्त और स्याद्वादके प्रयोगका स्थलभेद
(१) इन दोंनोंके उल्लिखित स्वरूपपर ध्यान देनेसे मालूम पड़ता है कि जहाँ अनेकान्तवाद हमारी बुद्धिको वस्तुके समस्त धर्मोकी ओर समानरूपसे खींचता है वहाँ स्याद्वाद वस्तुके एक धर्मका ही प्रधानरूपसे बोध करानेमें समर्थ है।
(२) अनेकान्तवाद एक वस्तुमें परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मोका विधाता है-वह वस्तुको नाना धर्मात्मक बतलाकर ही चरितार्थ हो जाता है। स्याद्वाद उस वस्तुको उन नाना धर्मोके दृष्टिभेदोंको बतलाकर हमारे व्यवहारमें आने योग्य बना देता है--अर्थात् वह नानाधर्मात्मक वस्तु हमारे लिये किस हालतमें किस तरह उपयोगी हो सकती है, यह बात स्याद्वाद बतलाता है । थोड़ेसे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि अनेकान्तवादका फल विधानात्मक है और स्याद्वादका फल उपयोगात्मक है।
(३) यह भी कहा जा सकता है कि अनेकान्तवादका फल स्याद्वाद है-अनेकान्तवादकी मान्यताने ही स्याद्वादकी मान्यताको जन्म दिया है, क्योंकि जहाँ नानाधर्मोंका विधान नहीं है वहाँ दृष्टिभेदकी कल्पना हो ही कैसे सकती है ?
उल्लिखित तीन कारणोंसे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अनेकान्तवाद ओर स्याद्वादका प्रयोग भिन्नभिन्न स्थलोंमें होना चाहिये। इस तरह यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ये दोनों एक नहीं हैं; परन्तु परस्पर सापेक्ष अवश्य है। यदि अनेकान्तवादकी मान्यताके बिना स्याद्वादकी मान्यताके बिना स्याद्वादकी मान्यताकी कोई आवश्यकता नहीं है तो स्याद्वादकी मान्यताके बिना अनेकान्तवादकी मान्यता भी निरर्थक ही नहीं बल्कि असंगत ही सिद्ध होगी। हम वस्तुको नानाधर्मात्मक मान करके भी जबतक उन नानाधर्मोंका दृष्टिभेद नहीं समझेंगे तबतक उन धर्मोकी मान्यता अनुपयोगी तो होगी ही, साथ ही वह मान्यता युक्ति-संगत भी नहीं कही जा सकेगी।
जैसे लंघन रोगीके लिये उपयोगी भी है और अनुपयोगी भी, यह तो हुआ लंघनके विषयमें अनेकान्तवाद । लेकिन किस रोगीके लिये वह उपयोगी है और किस रोगीके लिये वह अनुपयोगी है, इस दृष्टिभेदको बतलाने वाला यदि स्याद्वाद न माना गया तो यह मान्यता न केवल व्यर्थ ही होगी, बल्कि पित्तज्वरवाला रोगी लंघनकी सामान्यतौरपर उपयोगिता समझकर यदि लंघन करने लगेगा तो उसे उस लंघनके द्वारा हानि ही उठानी पड़ेगी। इसलिये अनेकान्तवादके द्वारा रोगीके सम्बन्धमें लंघनकी उपयोगिता और अनुपयोगिता रूप दो धर्मोको मान करके भी वह लंघन अमुक रोगीके लिये उपयोगी और अमुक रोगीके लिये अनुपयोगी है, इस दृष्टि-भेदको बतलाने वाला स्याद्वाद मानना ही पड़ेगा।
एक बात और है, अनेकान्तवाद वक्तासे अधिक संबन्ध रखता है; क्योंकि वक्ताकी दृष्टि ही विधा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org