Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैनदर्शनमें नयवाद
इसमें संदेह नहीं कि विश्वके प्राचीनतम सभी दर्शनकारोंमें जैनदर्शनकार विलक्षण प्रतिभाके धनी रहे है। यही कारण है कि जैनदर्शनकारोंने अन्य सभी दर्शनबारोंको अटपटे लगनेवाले अनेकान्तवाद, स्यामा नयवाद और सप्तभंगीवादको अपने अनभवके आधारपर वस्तव्यवस्थाकी सिद्धि के लिये जैनदर्शनमें स्थान दिया है । जैनदर्शनका आलोडन करनेसे यह बात सहज ही जानी जा सकती है कि जबतक उक्त वादोंको स्वीकार नहीं कर लिया जाता तबतक वस्तुव्यवस्था या तो अधूरी रहेगी या फिर गलत होगी।
प्रकृत लेखमें हम नयवादका विवेचन करना चाहते हैं। लेकिन नयोंका आधार जैन आगममें चंकि प्रमाणको ही बतलाया गया है, अतः यहाँपर सर्वप्रथम प्रमाणका ही संक्षेपमें दिग्दर्शन कराया जा रहा है। प्रमाण-निर्णय
लौकिक तथा दार्शनिक जगत्में वस्तुतत्त्वको समझनेके लिये प्रमाणको स्थान प्राप्त है। जैनदर्शनमें प्रमाणशब्दका जो व्युत्पत्त्यर्थ किया गया है उससे वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था में प्रमाणके महत्त्वको सहज ही जाना जा सकता है । यथा'प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम् ।'
- परीक्षामुखटीका १-१ अर्थात् जिसके द्वारा वस्तुतत्त्वका संशय, विपर्यय और अनध्यवसायंका निराकरण होकर निर्णय होता है वह प्रमाण है।
चूँकि उल्लिखितरूपमें वस्तुतत्त्वका निर्णय ज्ञानके द्वारा ही संभव है । अतः जैनदर्शनमें मुख्यरूपसे ज्ञानको ही प्रमाण स्वीकार किया गया है। यथा'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।'
-परीक्षामुख १-१ अर्थात्--अपना और अपनेसे भिन्न पूर्व में अनिर्णीत पदार्थका निर्णयात्मक ज्ञान प्रमाण है । परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थ १-२ में ही आगे बतलाया है
“हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।" अर्थात् चूंकि प्रमाण हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेमें समर्थ होता है, अतः ज्ञान ही प्रमाण कहलाने योग्य है ।
इसका फलितार्थ यह है कि ज्ञान ही एक ऐसी वस्तु है जो हितकी ष्टाप्ति और अहितका परिहार कर सकती है, अतः उपर्युक्त कथनके आधारपर जैनदर्शनमें ज्ञानको ही प्रमाण माना गया है। ज्ञान अप्रमाण भी होता है
ऊपर हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करने में ज्ञानको ही समर्थ बतलाया गया है। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि सभी ज्ञान हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेको सामर्थ्य नहीं रखते हैं। अतः
१. स्याद्वादका ही अपर नाम अपेक्षावाद है। इसका उपयोग सीमित दायरेमें अर्वाचीन एवं पाश्चात्य दर्शन
कारोंने भी किया है। २. 'नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् ।' -सर्वार्थसिद्धि १-६ । ३. 'संशय उभयकोटिसंस्पर्शी स्थाणा पुरुषो वेति परामर्शः । विपर्ययः पुनरतस्मिस्तदिति विकल्पः । विशेषा
नवधारणमनध्यवसायः।' -प्रमेयरत्नमाला ६-२।
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