Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
इस कथनसे एक बात यह भी फलित होती है कि वचनमें अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यरूप भेदोंके आधारपर जिस सांशताका प्रतिपादन किया गया है वह सांशता प्रमाणरूप आप्तवचन और अप्रमाणरूप अनाप्तवचन दोनोंमें ही समानरूपसे पायी जाती है। जैनदर्शनमें प्रतिपादित वचनकी यह सांशता ही श्रुत-प्रमाणमें नयोत्पत्तिकी जननी है । आगे इसी विषयपर विचार किया जाता है। नयोंका विकास :
इस लेखके प्रारम्भमें हो हम बतला आये है कि नयोंका आधारस्थल प्रमाण होता है। इसके साथ ही जैनागममें स्पष्टरूपसे यह बतलाया गया है कि नय प्रमाणका अंशरूप ही होता है । यथा
नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्शथाप्यविरोधतः ।।
-तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, अ० १, सू० ६, वा० २१ । अर्थात् ज्ञानात्मक नय न तो अप्रमाणरूप होता है और न प्रमाणरूप ही होता है किन्तु प्रमाणका एकदेश (अंश) रूप ही होता है ।
इससे दो बातें फलित होती है--एक तो यह कि नयव्यवस्था प्रमाणमें ही होती है, अप्रमाणमें नहीं । और दूसरी यह कि नय हमेशा प्रमाणका अंशरूप ही रहा करता है, वह स्वयं कभी पूर्ण रूप नहीं होता। अप्रमाणमें नयव्यवस्था नहीं होती--इसका खुलासा हम आगे करेंगे । अतः इसे छोड़कर यहाँपर हम इस बातका स्पष्टीकरण कर देना चाहते हैं कि नय प्रमाणका अंशरूप ही रहा करता है। तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकमें निम्नलिखित पद्य पाया जाता है--
स्वार्थेकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः। --अ० १, सू० ६, वा० ४ । अर्थात् प्रमाणके वियभूत 'स्व' और 'पदार्थके एक देश (अंश)' का जिसके द्वारा निर्णय किया जाय वह नय कहलाता है।
इस पद्यमें नयको जो पदार्थके एकदेश (अंश) का ग्राहक प्रतिपादित किया गया है उससे सिद्ध होता है कि नय हमेशा प्रमाणका अंश हो हुआ करता है । सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपादने भी लिखा हैसकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः ।
-तत्त्वा० १-६। अर्थात् पदार्थका पूर्णरूपसे ग्राहक प्रमाण होता है और उसके अंशका ग्राहक नय होता है ।
इस तरह नय जब प्रमाणका अंश सिद्ध हो जाता है तो इससे एक बात यह भी सिद्ध हो जाती है कि नय-व्यवस्था सांश प्रमाणमें ही होती है, निरंश प्रमाणमें नहीं। इसका कारण भी यह समझना चाहिये कि निरंश ज्ञानमें ज्ञानका अखण्ड भाव रहनेके कारण अंशोंका विभाजन नहीं हो सकता है । इससे प्रमाणके पूर्वोक्त पांच भेदोंमेंसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें नयव्यवस्थाका अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि इन ज्ञानोंमें पदार्थं ग्रहणका अखण्ड भाव ही पाया जाता है और चूँकि श्रुतज्ञानमें पदार्थग्रहणके अंशोंका विभाजन होता है, अतः उसमें नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध हो जाता है।
इसका तात्पर्य यह है जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें उस-उस ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेके कारण यद्यपि पदार्थका ज्ञान सर्वात्मना न होकर अंशमुखेन ही होता है लेकिन वह ज्ञान होता अखण्डभावसे ही है। इसी तरह केवलज्ञाज्ञमें समस्त ज्ञानावरण
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