Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
४ / दर्शन और न्याय : ३३
श्रुतज्ञानकी निःशेषदेशकालार्थविषयिताका स्पष्टीकरण
ऊपर तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ६ के व्याख्यानस्वरूप तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके २४ से २७ संख्या तकके वात्तिकोंमें नयव्यवस्थाके लिये उपयोगी ज्ञानकी निःशेषदेशकालार्थविषयिताका कथन किया है। परन्तु उसका रूप ऐसा होना चाहिये कि वह श्रुतज्ञानके साथ-साथ केवलज्ञानमें तो पायी जाती हो, किन्तु मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें न पायी जाती हो ।
केवलज्ञानमें विद्यमान तत्त्वार्थसूत्रके 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' । (१-२९) सूत्रमें प्रतिपादित निःशेषदेशकालार्थविषयिता ऐसी है कि इसका श्रुतज्ञानमें पाया जाना संभव नहीं है, कारण कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानकी तरह श्रुतज्ञान भी तो क्षायोयशमिक ज्ञान है और यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रके ही 'मतिश्रतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष' (१-२६) सूत्र द्वारा मतिज्ञानके साथ-साथ श्रुतज्ञानमें भी उसका निषेध कर दिया गया है । तात्पर्य यह है कि जैनदर्शनकी मान्यताके अनुसार विश्वमें अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता लिये हए अनन्त वस्तुएँ विद्यमान हैं व इनमेंसे प्रत्येक वस्तु अपने अन्दर अपने-अपने पृथक् अनन्त धर्मोंको समाये हए है । विश्वकी इस प्रकारकी सभी वस्तुएँ 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' सूत्रके अनुसार अपने-अपने उन अनन्त धर्मोके साथ केवलज्ञानका विषय तो होती हैं परन्तु ‘मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।' सूवके अनुसार मतिज्ञान व श्रुतज्ञानका विषय नहीं होती हैं।
. इससे सिद्ध होता है कि विश्वकी प्रत्येक वस्तुमें जो अनन्तधर्मात्मकता जैनदर्शन द्वारा स्वीकृत की गयी है उसके आधारपर निष्पन्न ज्ञानको निःशेषदेशकालार्थविषयिता श्रुतज्ञानमें स्वीकृत नयव्यवस्थाके लिये उपयोगी नहीं है क्योंकि उपर्युक्त कथनके अनुसार श्रुतज्ञान में उसका अभाव रहता है । इस तरह प्रकृतमें यह प्रश्न होता है कि, उक्त निःशेषदेशकालार्थविषयिताको छोड़कर ऐसी कौनसी ज्ञानकी निःशेषदेशकालार्थविषयिता है जो केवलज्ञानके साथ-साथ श्रतज्ञानमें पायी जाकर नयव्यवस्थाके लिये उपयोगी हो?
विचार करनेपर मालूम पड़ता है कि विश्वकी प्रत्येक वस्तु जैनदर्शनकी मान्यतानुसार जिस प्रकार अनन्तधर्मात्मक है उसी प्रकार वह अनेकान्तात्मक भी है । यहाँपर परस्पर विरोधी दो धर्मोंका एक ही साथ एक वस्तुमें पाया जाना उस वस्तुकी अनेकान्तात्मकता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तुमें जैसे उसके अनन्तधर्म एक साथ रह रहे हैं वैसे ही परस्पर-विरोधी दो धर्म भी रह रहे हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तुको अनेकान्तात्मकताके कथनमें जो अनेकान्त शब्द आया है उसमें गभित अनेक शब्दका अर्थ जैनदर्शनमें 'दो' लिया गया है । इसका कारण यह है कि परस्पर विरोधिता दो धर्मोंमें ही संभव हो सकती है, तीन, चार आदि संख्यात, असंख्यात व अनन्तधर्मों में नहीं। और इसका भी कारण यह है कि एक धर्मका प्रतिपक्षी दूसरा एक ही धर्म हो सकता है, दो, तीन, चार आदि धर्म नहीं, क्योंकि एक धर्मका प्रतिपक्षी दूसरा एक धर्म यदि है तो तीसरा एक धर्म उन दोनोंका प्रतिपक्षी कदापि नहीं हो सकता है अर्थात तीसरा एक धर्म यदि प्रथम एक धर्मका प्रतिपक्षी है तो प्रथम एक धर्मके प्रतिपक्षी दूसरे एक धर्मका वह नियमसे सपक्षी हो जायगा, और यदि वह दूसरे एक धर्मका प्रतिपक्षी है तो उस हालतमें वह प्रथम एक धर्मका नियमसे सपक्षी हो जायगा। यही नियम चौथे, पाँचवें आदि संख्यात, असंख्यात और अतन्तधर्मोके विषयमें भी जान लेना चाहिये । इस अभिप्रायसे ही जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुगत अनन्तधर्मसापेक्ष अनन्त वचनप्रयोगोंके आधारपर सप्तभंगीके विरुद्ध अनन्तभंगीकी प्रसक्तिको परस्परविरोधी यगलधर्मोके आधारपर अनन्त सप्तभंगीके रूपमें इष्ट मान लिया गया है । यथा
'नन्वेकत्र वस्तुन्यनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यानामुपगमादनन्ता एव वचनमार्गाः स्याद्वादिनां
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org