Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४ / दर्शन और न्याय : ३१
कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण पदार्थका ग्रहण यद्यपि सर्वात्मना होता है तो भी वह ज्ञान चूँकि युगपत् सम्पूर्ण अंशोंका एक साथ ही हुआ करता है अतः वह भी अंशोंका भेदरहित अखण्डभावसे ही हुआ करता है । इस प्रकार इन चारों ज्ञानोंमें नयव्यवस्थाकी सिद्धि होना असम्भव बात है। लेकिन श्रुतज्ञानमें इन चारों ज्ञानोंकी अपेक्षा यह विशेषता पायी जाती है कि श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक सांशवचन के अवलम्बनसे उत्पन्न होनेके कारण उसमें ( श्रुतज्ञानमें ) पदार्थका ज्ञान अखण्डभावसे न होकर पदार्थ के एक-एक अंशका क्रमशः ज्ञान होता हुआ सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान हो जाया करता है, इसलिये इस ज्ञानमें पदार्थ ग्रहणका सखण्डभाव रहने के कारण नयव्यवस्थाकी सिद्धि हो जाती है ।
तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (१-३३-६) में जो नयका लक्षण निर्दिष्ट किया गया है उसमें तो स्पष्टरूपसे कहा गया है कि नयव्यवस्था श्रुतज्ञान में ही होती है । यथा
" नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः । "
अर्थात् जिसके द्वारा श्रुतज्ञानरूप प्रमाणके विषयभूत पदार्थ के अंशका ज्ञान किया जाय वह नय कह
लाता है ।
व्यवस्था श्रुतज्ञानमें ही होती है, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और केवलज्ञानमें नहीं होती, इसकी पुष्टि इसी ग्रन्थके निम्नलिखित वार्तिकोंसे भी होती है
"मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा । ज्ञातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥ निःशेषदेशकालार्थ गोचरत्व विनिश्चयात् 1 तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टतः ॥ त्रिकाल गोच राशेषपदार्थांशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते । परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात्केवलस्य तु । श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत् ॥
इन वार्तिकका अर्थ यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि इन ज्ञानों में निःशेषदेशकालार्थविषयिताका अभाव रहता है । अर्थात् ये तीनों ज्ञान अपने विषयभूत पदार्थको सम्पूर्ण देश और कालकी विशिष्टताके साथ ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं । केवलज्ञान यद्यपि अपने विषयभूत पदार्थको सम्पूर्ण देश और कालकी विशिष्टता के साथ ग्रहण करता है लेकिन उसके (केवलज्ञानके) ग्रहण में स्पष्टता' (प्रत्यक्षाकारता) पायी जाती है जब कि नयोंके ग्रहणमें परोक्षाकारता ही रहा करती है । इस प्रकार नयोंका उद्भव मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें न होकर श्रुतज्ञानमें ही होता है, क्योंकि वह एक तो अपने विषयभूत पदार्थको सम्पूर्ण देश और कालकी विशिष्टता के साथ ग्रहण करता है । दूसरे उसमें परोक्षाकारता पायी जाती है ।
- त० श्लो० १-६-२४, २५, २६, २७ |
इसका तात्पर्य यह है कि प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिके लिये दो बाते अपेक्षित हैं- एक तो प्रमाणकी निःशेषदेशकालार्थंविषयिता और और दूसरी परोक्षाकारता । प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिहेतु निःशेष
१. विशदं प्रत्यक्षम् । - परीक्षामुख २-३ ॥ २. आद्ये परीक्षम् ।
तत्त्वार्थसू० १ ११ ।
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