Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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/ दर्शन और न्याय २५ ये दोनों ज्ञान सर्वदा सम्यक् ही हुआ करते हैं, कभी मिथ्यारूप नहीं होते । अतः इन दोनोंको अप्रमाणताकी कोटिसे बाहर रखा गया है ।
प्रमाण और अप्रमाणरूप सभी ज्ञानोंमें पदार्थग्रहणकी व्यवस्था
प्रमाण और अप्रमाणरूप मतिज्ञान व अवधिज्ञान एवं प्रमाणरूप मन:पर्ययज्ञान उस उस ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होने के कारण अपने विषयभूत पदार्थको एकदेशरूपमें अखण्ड भावसे ग्रहण करते हैं, प्रमाणरूप केवलज्ञान समस्त ज्ञानावरणकर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण अपने विषयभूत पदार्थको युगपत सर्वदेशरूपमें अखण्ड भावसे ग्रहण करता है । लेकिन प्रमाण और अप्रमाण दोनों ही तरहका श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होने व उत्पत्तिमें सांग वचनका अवलम्बन आवश्यक रहनेके कारण अपने विषयभूत पदार्थ एक-एक अंशको पृथक् पृथक् कालमें क्रमशः ग्रहण करता हुआ पदार्थको सखण्डभावसे ही ग्रहण किया करता है ।
इस कथनका तात्पर्य यह है कि यथायोग्य प्रमाण अथवा अप्रमाणरूप मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञानमें अंशमुखेन अखण्ड भावसे पदार्थ गृहीत होता है, प्रमाणरूप केवलज्ञान में सर्वात्मना युगपत् अखण्ड भावसे पदार्थ गृहीत होता है । परन्तु प्रमाण और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें पदार्थोंके एक-एक अंशका क्रमशः ग्रहण होता हुआ पदार्थ के संपूर्ण अंशोंका ग्रहण सखण्डभावसे होता है क्योंकि प्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति तो सांश और क्रमवर्ती प्रमाणरूप आप्तवचनसे तथा अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति सांश और क्रमवर्ती अप्रमाणरूप अनाप्तवचनसे हुआ करती है। आगे वचनकी सांशताके विषयमें विचार किया जाता है।
वचन सांश होता है
अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यके भेदसे वचन पांच प्रकारका होता है। वचनके इन पाँचों प्रकारोंमेंसे शब्द अंगभूत निरर्थक अकारादिवर्ण अक्षर कहलाते हैं, अर्थवान् अकारादि अक्षर और दो आदि निरर्थक अक्षरोंका अर्थवान् समुदाय 'शब्द' कहलाता है, अर्थवान् शब्दरूप प्रकृतिका संस्कृत भाषामें 'सुप्' अथवा 'तिङ्' प्रत्यय के साथ संयोग होनेपर पदका निर्माण होता है तथा परस्पर सापेक्ष दो आदि पदों के निरपेक्ष समूहसे 'वाक्य'का एवं परस्परसापेक्ष दो आदि वाक्योंके निरपेक्ष होता है। यद्यपि दो आदि महावाक्योंका भी निरपेक्ष समूह हुआ करता है परन्तु महावाक्योंकि ऐसे समूहको भी 'महावाक्य' शब्दसे ही व्यवहृत किया जाता है।
समूहसे 'महावाक्य' का निर्माण
१. 'सुप्तिङन्तं पदम्' - अष्टाध्यायी, पाणिनि १-४-१४ ।
२. पदानां परस्परसापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम्।' अष्टशतो, अकलङ्क, अष्टसहस्री पृ० २८५ ।
३. ' वाक्योच्चयो महावाक्यम् ।' -- साहित्यदर्पण, परिच्छेद २, श्लोक १ ।
इस श्लोकके 'वाक्योच्चयः' पदका विश्लेषण इसीकी टीकामें 'योग्यताकांक्षासत्तियुक्तः' किया गया है। इस तरह महावाक्यका इस प्रकार लक्षण होता है-'परस्परसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षः समुदायो महावाक्यम्
इस लक्षणके आधारपर ही गोम्मटसार जीवकाण्डके श्रुतज्ञानप्रकरण में गिनाये गये श्रुतके भेदोंमेंसे आदिके अक्षर, पद और संघात ( वाक्य ) से आगे जितने भेद हैं वे सब महावाक्य के ही भेद समझना चाहिए।
नोट- इस टिप्पणीमें 'संघात' शब्दका अर्थ वाक्य हमने आप्तमीमांसाको कारिका १०३ की अष्टसहस्रीटीकाके आधारपर किया है ।
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