Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १९१ ऐसा सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम इस तरह दोनों गुणस्थानों में यथायोग्य समय तक सतत झूलेकी तरह झूलता रहता है ।
(घ) यदि वह सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव पहलेसे ही उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो अथवा सप्तम गुणस्थानके काल में ही वह उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो जावे तो वह तब करणलब्धि के आधारपर नव नोकषायोंके साथ चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण और तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण इन दोनों कषायोंकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका तथा उसके चतुर्थ भेद संज्वलनकषायकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका भी यथास्थान नियमसे उपशम या क्षय करता है और उपशम होनेपर उसको भाववती शक्तिका एकादश गुणस्थानके प्रथम समय में ओपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें अथवा क्षय होनेपर उसकी भाववती शक्तिका द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रगट होता है ।
व्यवहारधर्म की व्याख्या
व्यवहारधर्मकी व्याख्या करनेसे पूर्व यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नारकी, देव और नियंच इन तीनों प्रकारके जीवोंमें केवल अगृहीत मिथ्यात्व पाया जाता है । अतः इनमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव नहीं है । केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें अगृहीत मिध्यात्व के साथ गृहीत मिथ्यात्व भी पाया जाता है। फलतः मनुष्यों में व्यवहारधर्मका व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव हो जाता है । अतः यहाँ मनुष्यों की अपेक्षा व्यवहारधर्मका विवेचन किया जाता है ।
चरणानुयोगकी व्यवस्था के अनुसार पापभूत अघातिकर्मों के उदयमें अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंकी भाववती शक्तिके हृदय के सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्क के सहारेपर अतत्त्वज्ञान के रूपमें मिथ्या परिणमन होते रहते हैं तथा जब उनमें पुण्यभूत अघातिकर्मोंका उदय होता है तब अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानरूप उन परिणमनोंकी समाप्ति होनेपर उनकी उस भाववती शक्तिके हृदय के सहारेपर तत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्क के सहारेपर तत्त्वज्ञान के रूप में सम्यक्परिणमन होने लगते हैं । भाववती शक्तिके दोनों प्रकारके सम्यक् परिणमनोंमेंसे तत्त्वश्रद्धानरूप परिणमन सम्यग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है और तत्त्वज्ञानरूप परिणमन सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है ।
चरणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार भाववती शक्ति के परिणमन स्वरूप उक्त अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञान से प्रभावित अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियाँ किया करते हैं और कदाचित् साथमें लौकिक स्वार्थवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करते | तथा जब वे भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होते हैं तब वे अपनी क्रियावती शक्तिके प रणमनस्वरूप उक्त संकल्पी - पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्याग कर मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करने लगते हैं । इतना ही नहीं, भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानके आधारपर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य कदाचित् क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियाँके सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों का भी एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए अनिवार्य आरम्भो पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं । इस प्रकार अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि मनुष्य
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