Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१९० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
अभावमें प्रकट होता है। आकुलताका अभाव मोक्षमें है, अतः जीवोंको मोक्षके मार्गमें प्रवृत्त होना चाहिए। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप है। एवं वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो भागोंमें विभक्त हैं। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सत्यार्थ अर्थात् आत्माके शुद्ध स्वभावभूत है उन्हें निश्चयमोक्षमार्ग कहते हैं व जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चयमोक्षमार्गके प्रगट होने में कारण है उन्हें व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं।।
छहढालाके इस प्रतिपादनसे मोक्षमार्गका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके रूपमें विश्लेषण, उनकी निश्चय और व्यवहार दो भेदरूपता व निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमार्गों में विद्यमान साध्यसाधकभाव इन सबका परिज्ञान हो जाता है। इसके अतिरिक्त पंचास्तिकायकी गाथा १०५ की आचार्य जयसेन कृत टीकामें' भी व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका कारण बतलाकर दोनों मोक्षमार्गोंमें साध्यसाधकभाव मान्य किया गया है। तथा गाथा १५९, १६० और १६१ को आचार्य अमतचंद्र कृत टीका में भी ऐसा ही बतलाया गया है। निश्चयधर्मको व्याख्या
करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार जीव अनादिकालसे मोहनीयकर्म से बद्ध है और उसके उदयमें उसकी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववती शक्तिका शुद्धस्वभावभूत परिणमनके विपरीत अशुद्ध विभावभूत परिणमन होता है । भाववती शक्तिके इस अशुद्ध विभावरूप परिणमनको समाप्ति करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार मोहनीयकर्मके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होती है। इस तरह जोवको भाववतो शक्तिके अशुद्ध विभावभूत परिणमनके समाप्त हो जानेपर उसका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है उसे ही निश्चयधर्म जानना चाहिए। इसके प्रकट होनेको व्यवस्था निम्न प्रकार है
(क) सर्वप्रथम जीवमें दर्शनमोहनोयकर्मको यथासम्भव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर उस जीवको भाववती शक्तिका चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चयसम्यग्दर्शनके रूपमें व निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें शुद्धस्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है।
(ख) इसके पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरणकषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवको भाववती शक्तिका पंचमगुणस्थानके प्रथम समयमें देशविरति निश्चयसम्यकचारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभुत परिणमन प्रगट होता है।
(ग) इसके भी पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरणकषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववती शक्तिका सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें सर्वावरति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्धस्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है । १. निश्चयमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभूतो व्यवहारमोक्षमार्गः । -गा० १०५, टीका । २. (क) निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधक भावत्वात् । गा० १५९ की टीका।
(ख) निश्चयमोक्षमार्गसाधकभावेन व्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । गा० १६० की टीका । (ग) व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । गा० १६१ की टीका।
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