Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
भारतीय दर्शनोंका मूल आधार
'दर्शन' शब्द संस्कृत भाषाका शब्द है । यह शब्द संस्कृतव्याकरणके अनुसार " दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्” अथवा “दृश्यते = निर्णीयत इदं ( वस्तु तत्त्वं ) इति दर्शनम्" इन दोनों व्युत्पत्तियोंके आधारपर " दृश्" धातुसे निष्पन्न होता है । पहली व्युत्पत्तिके आधारपर निष्पन्न 'दर्शन' शब्द तर्क, वितर्क मंथन या परीक्षा स्वरूप उस विचारधाराका नाम है जो तत्त्वोंके निर्णय में प्रयोजक हुआ करती है । दूसरी व्युत्पत्तिके आधारपर निष्पन्न 'दर्शन' शब्दका अर्थ उल्लिखित विचारधारा द्वारा निर्णीत तत्त्वोंकी स्वीकारता होता है । इस प्रकार 'दर्शन' शब्द दार्शनिक जगतमें इन दोनों प्रकारके अर्थोंमें व्यवहृत हुआ है अर्थात् भिन्नभिन्न दर्शनोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यतायें हैं उनको और जिन तार्किक मुद्दोंके आधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन तार्किक मुद्दोंको दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत स्वीकार किया है ।
वर्तमान दृश्य जगत्की परंपराको सभी दर्शनोंमें किसी-न-किसी रूपसे अनादि स्वीकार किया गया है । इसलिए जगतकी इस परंपरामें न मालूम कितने दर्शन विकासको प्राप्त होकर विलुप्त हो गये होंगे और कौन कह सकता है कि भविष्य में भी नये-नये दर्शनोंका प्रादुर्भाव नहीं होगा । परन्तु आज हम सिर्फ उन्हीं दर्शनोंके बारेमें कुछ सोच सकते हैं जो उपलब्ध हैं या साहित्यके आधारपर जिनकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है । ये दर्शन सबसे पहले भारतीय और अभारतीय ( पाश्चात्य ) दर्शनोंके रूपमें हमारे सामने आते हैं । जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष में हुआ है वे दर्शन भारतीय और जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर पाश्चात्य देशोंमें हुआ है वे अभारतीय या पाश्चात्य दर्शनोंके नामसे पुकारे जाते हैं ।
भारतीय दर्शन भी दो भागों में विभक्त किये गये हैं-वैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन । वैदिक परपराके अन्दर जिनका प्रादुर्भाव और विकास हुआ है तथा जो वैदिक परम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वैदिक दर्शन माने गये हैं और वैदिक परम्परासे भिन्न जिनकी स्वतंत्र परम्परा है या जो वैदिक परम्पराके विरोधी दर्शन हैं उनको अवैदिक दर्शन स्वीकार किया गया है। वैदिक दर्शनों में मुख्यतः सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन माने गये हैं और जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शनोंको अवैदिक दर्शन स्वीकार किया गया है । इनके अलावा छोटे-मोटे भेदों और उपभेदोंके रूपमें और भी वैदिक तथा अवैदिक दर्शनोंको गणना की जा सकती है, परन्तु अनावश्यक विचारके भयसे उन्हें इस विभागक्रममें स्थान नहीं दिया गया है । आजकलके बहुतसे विद्वानोंमें गीताको एक स्वतन्त्र दर्शन माननेकी प्रवृत्ति देखी जाती है । परन्तु वास्तव में गीता कर्त्तव्यरूप धार्मिक या आध्यात्मिक महान उपदेश मात्र है । यही कारण है कि गीतामें स्थान-स्थानपर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुनके लिए कर्मयोगकी ओर झुकनेकी प्रेरणा की गई है । गीताको कर्मयोगका प्रतिपादक ग्रन्थ मानना भी मेरे विचारके अनुसार ठीक नहीं है । लेकिन मैं इतना अवश्य स्वीकार करता हूँ कि गीता में कर्मयोगके आधारपर प्रायः समस्त वैदिक दर्शनोंके समन्वय करनेका प्रयत्न किया गया है ।
इन वैदिक और अवैदिक दर्शनोंको दार्शनिक विकासके मध्य युगमें क्रमसे आस्तिक और नास्तिक नामों से भी पुकारा जाने लगा था । परन्तु मालूम पड़ता है कि वैदिक और अवैदिक दर्शनोंका इस प्रकारका नामकरण वेदपरम्पराके समर्थन और विरोधके कारण प्रशंसा और निन्दा रूपमें साम्प्रदायिक व्यामोह के वशीभूत लोगों द्वारा किया गया है, कारण कि यदि प्राणियोंका जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिके न मानने रूप अर्थ में नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो जैन और बौद्ध ये दोनों अवैदिक दर्शन नास्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकलकर आस्तिक दर्शनोंकी कोटिमें आ जायेंगे; क्योंकि ये दोनों दर्शन प्राणियोंके जन्मान्तर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org