Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१६ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
सद्भावमें न होकर दर्शनपूर्वक ही हुआ करते हैं, इसका अर्थ यह है कि केवलज्ञानको छोड़कर शेष ज्ञानदर्शनके बाद ही हुआ करते हैं, आगममें भी ऐसा ही बतलाया गया है, इसलिये अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधि और मन:पर्ययज्ञान ये सब दर्शन के सद्भाव में होते हैं ऐसा कहना गलत है ? उत्तर - केवलज्ञानकी तरह उक्त अवग्रहादि ज्ञान भी दर्शनके सद्भावमें ही हुआ करते हैं। आगमइनका दर्शनपूर्वक होना लिखा है उसका आशय इतना ही है कि इन ज्ञानोंके होने में दर्शन कारण है । जिस प्रकार " सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है" इस आगमवाक्यमें पूर्वशब्दको कारणरूप अर्थका बोधक स्वीकार किया गया है उसी प्रकार "दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है" इस आगमवाक्यमें भी पूर्वशब्दको कारण रूप अर्थका बोधक ही स्वीकार करना उचित है। दूसरी बात यह है कि कार्यकारणभावको स्वीकृति के लिए कार्योत्पत्तिके समयमें कारणकी उपस्थिति रहना आवश्यक है, इसलिए जब दर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव स्वीकार किया गया है तो दर्शनका ज्ञानोत्पत्तिके समयमें उपस्थित रहना आवश्यक हो जाता है ।
शंका - जिस प्रकार किसी भी वस्तुकी किसी एक 'पूर्व पर्यायके बाद दूसरी कोई उत्तर पर्याय हुआ करती है या एक नक्षत्र के उदयके बाद दूसरे नक्षत्रका उदय हुआ करता है तो जैसा कार्यकारणभाव पूर्व पर्यायका उत्तरपवयिके साथ या एक नक्षत्र के उदयका दूसरे नक्षत्र के उदयके साथ पाया जाता है वैसा ही कार्यकारणभाव पूर्व और उत्तर कालमें उत्पन्न होनेवाले दर्शन और ज्ञानमें भी समझ लेना चाहिए, इसलिए दर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव रहते हुए भी दर्शनका ज्ञानोत्पत्तिके समयमें उपस्थित रहना आवश्यक नहीं है ?
उत्तर-- पहली बात तो यह है कि दर्शन और ज्ञान ये दोनों एक ही गुणकी पूर्वोत्तरकालत दो पर्यायें नहीं हैं अपितु अलग-अलग दो गुणोंकी अलग-अलग पर्याये हैं, अन्यथा इनके आवारक दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों कर्मोंका आत्मामें पृथक्-पृथक् अस्तित्व मानना असंगत हो जायगा। दूसरी बात यह है कि वस्तुकी पूर्वपर्याय उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति में अथवा पूर्व नक्षत्रका उदय उत्तर नक्षत्र के उदयमें कारण नहीं होता है । केवल पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय में उत्पत्तिकी अपेक्षा तथा पूर्व नक्षत्र और उत्तर नक्षत्र में उदयकी अपेक्षा जो क्रमपना पाया जाता है वह क्रमपना यहाँ पर कार्यकारणभावका व्यवहार करने मात्र में कारण होता है क्योंकि पूर्व नक्षत्रका उदय उत्तर नक्षत्र के उदयमें कारण नहीं होता है, यह बात तो स्पष्ट है ही, परन्तु वस्तुकी पूर्व पर्याय उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिमें कारण नहीं होती है, यह बात भी उतनी ही स्पष्ट समझनी चाहिए । इसका आशय यह है कि पूर्वपर्यायके विनाशके बिना उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति संभव नहीं है, इसलिए पूर्वपर्यायका विनाश ही उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति में कारण होता है, पूर्व पर्याय नहीं । यदि कहा जाय कि पूर्व - पर्यायका विनाश ही तो उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है इसलिए पूर्वपर्यायके विनाशको उत्तरपर्यायको उत्पत्ति में कारण कैसे माना जा सकता है ? इसलिए पूर्वपर्यायको ही उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति में कारण मानना उचित है, तो इसका उत्तर यह है कि इस तरहसे पूर्व पर्यायके विनाशको ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति स्वीकार कर लेके बाद पूर्वपर्या को अपने विनाशका ही कारण मानना अपने आप अयुक्तिक हो जाता है क्योंकि पूर्वपर्यायका विनाश उसके अपने स्वतंत्र कारणों द्वारा होता है, पूर्वपर्याय उसमें कारण नहीं है, यही मानना उचित है और चूंकि पूर्वपर्यायका विनाश ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है। अतः जो पूर्वपर्यायके विनाशका कारण है उसीको उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिमें कारण माना जा सकता है, पूर्व पर्यायको नहीं इस कथनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जो लोग पूर्वपर्यायको उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिमें उपादान कारण मानते हैं। उनका यह मानना गलत है क्योंकि उत्तरपर्यायकी तरह पूर्वपर्याय भी कार्यमात्र है, उत्तर पर्यायी वह उपादान नहीं । इन दोनोंका उपादान वह है जिसकी कि ये पर्यायें हैं। लेकिन इस तरह इन दोनोंकी
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