Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४ / दर्शन और न्याय १३
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नामका चौथा रूप नववचनका निष्पन्न होता है। नयवचनके पाँचवें छठे और सातवें रूपोंको प्रमाणवचन के पाँचवें, छठे और सातवें रूपोंके समान समझ लेना चाहिये । जैनदर्शन में नयवचनके इन सात रूपोंको नयसप्तभंगी नाम दिया गया है ।
इन दोनों प्रकारकी सप्तभंगियोंमें इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि जब सत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तु सत्वधर्मका प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तुकी असत्वधर्मविशिष्टताको अथवा वस्तुके असत्वधर्मको अविवक्षित मान लिया जाता है और यही बात असत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तुके असत्वधर्मका प्रतिपादन करते समय वस्तुकी सत्वधर्मविशिष्टता अथवा वस्तुके सत्वधर्मके बारेमें समझना चाहिये । इस प्रकार धर्मोet faar (मुरूपता) और अविवक्षा (गौणता) के स्पष्टीकरण के लिये स्याद्वाद अर्थात् स्यात्की मान्यताको भी जैन दर्शनमें स्थान दिया गया है। स्याद्वादका अर्थ है किसी भी धर्मके द्वारा वस्तुका अथवा वस्तुके किसी भी धर्मका प्रतिपादन करते समय उसके अनुकूल किसी भी निमित्त, किसी भी दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्यको लक्ष्यमें रखना और इस तरहसे ही वस्तुकी विरुद्धधर्मविशिष्टता अथवा वस्तुमें विरुद्ध धर्मका अस्तित्व अक्षुण्ण रखा जा सकता है। यदि उक्त प्रकारके स्याद्वादको नहीं अपनाया जायगा, तो वस्तुकी विरुद्धधर्मविशिष्टताका अथवा वस्तुमें विरोधी धर्मका अभाव मानना अनिवार्य हो जायगा और इस तरहसे अनेकान्तवादका भी जीवन समाप्त हो जायगा ।
इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद मे जैनदर्शनके अनूठे सिद्धान्त हैं। इनमें से एक प्रमाणवादको छोड़कर वाकीके चार सिद्धान्तोंको तो जैनदर्शनकी अपनी ही निधि कहा जा सकता है और ये चारों सिद्धान्त जैनदर्शनकी अपूर्वता एवं महत्ताके अतीव परिचायक हैं। प्रमाणवादको यद्यपि दूसरे दर्शनोंमें स्थान प्राप्त है परन्तु जिस व्यवस्थित ढंग और पूर्णताके साथ जैनदर्शनमें प्रमाणका विवेचन पाया जाता है वह दूसरे दर्शनोंमें नहीं मिल सकता है। मेरे इस कथन की स्वाभाविकताको जैनदर्शन के प्रमाणविवेचनके साथ दूसरे दर्शनोंके प्रमाणविवेचनका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विद्वान् सहज ही समझ सकते हैं ।
एक बात जो जैनदर्शनकी यहाँ पर कहनेके लिये रह गई है वह है सर्वज्ञतावादकी, अर्थात् जैनदर्शन में सर्वज्ञतावादको भी स्थान दिया गया है और इसका कारण यह है कि आगमप्रमाणका भेद जो परार्थप्रमाण अर्थात् बचन है उसकी प्रमाणता बिना सर्वज्ञताके संभव नहीं है। कारण कि प्रत्येक दर्शन में आप्तका वचन ही प्रमाण माना गया है तथा आप्त अवंचक पुरुष ही हो सकता है और पूर्ण अवचकताकी प्राप्ति के लिये व्यक्ति में सर्वज्ञताका सद्भाव अत्यन्त आवश्यक माना गया है।
जैनदर्शन में इन अनेकान्त, प्रमाण, नय, सप्तभंगी, स्यात् और सर्वज्ञताकी मान्यताओंको गंभीर और विस्तृत विवेचनके द्वारा एक निष्कर्षपर पहुँचा दिया गया है। न्यायदीपिकामें श्रीमदभिनव धर्मभूषणय तिने इन्हीं विषयोंका सरल और संक्षिप्त ढंग से विवेचन किया है और श्री पं० दरबारीलाल कोठियाने इसे टिप्पणी और हिन्दी अनुवादसे सुसंस्कृत बनाकर सर्वसाधारणके लिये उपादेय बना दिया है । प्रस्तावना, परिशिष्ट आदि प्रकरणों द्वारा इसकी उपादेयता और भी बढ़ गयी है। आपने न्यायदीपिका के कठिन स्थलोंका भी परिश्रमके साथ स्पष्टीकरण किया है ।
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