Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १८५
नहीं है तो इस बातको स्वीकार करने में यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्षकी प्राप्ति जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके होनेपर होना एक बात है और उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मक्षयका कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तव में देखा जाये तो द्वादश गुणस्थानवी जीवका वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभावका ही अंश है जो मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय होनेपर ही प्रकट होता है।।
अन्तमें एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त "सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दका जीवकी भाववतीशक्तिका स्वभावभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्ण विकास हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकर्मोंका तथा चारों अघातिकर्मोंका एक साथ क्षय होनेकी प्रसक्ति होती है। साथ ही यह समस्या भी अस्थित होती है कि जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके विकासका प्रारम्भ जब प्रथम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जानेपर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है तो ऐसी स्थितिमें उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मोंके संवर ओर निर्जरणका कारण कैसे माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता है। यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है। उत्तरपक्षकी यह जो मान्यता है कि जीव द्रव्यकर्मोंके उदयकी अपेक्षा न रखते हुए स्वयं (अपने आप) ही अज्ञानी बना हुआ है और उन कर्मोसे यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखते हुए स्वयं (अपने आप) ही ज्ञानी बनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है सो इस मान्यताका निराकरण प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किया जा चुका है तथा प्रश्नोत्तर षष्ठकी समीक्षामें भी किया जायेगा। इसी तरह उत्तरपक्षको मान्य नियतिवाद और नियतवादका निराकरण प्रश्नोत्तर पाँचकी समीक्षामें किया जायेगा। प्रकृतमें कर्मों के आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जराकी प्रक्रिया
(१) अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि जीव जबतक आशक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं तबतक वे उस प्रवृत्तिके आधारपर सतत कर्मोंका आस्रव
और बन्ध ही किया करते हैं। तथा इस संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ वे यदि कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी करते हैं तो भी वे उन प्रवृत्तियोंके आधारपर सतत कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते है।
(२) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जब आशक्तिवश होनेवाले संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्तव्यवश करने लगते है तब भी वे कर्मोका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं।
(३) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगप्तिके रूपमें सर्वथा त्याग कर यदि अशक्तिवश होनेवाले मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापमय अदयारूप अशभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं ।
(४) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके उक्त प्रकार सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका भी मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और
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