Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१८४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
होती है अथवा "तपसा निर्जराच" त० स०९-३) के अनसार क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप तपके बलपर अविपाक रूपमें भी होती है। इसके अतिरिक्त यदि जीवकी भाववती शक्तिसे स्वभावभत शद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण स्वीकार किया जाता है तो जब द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाता है तो एक तो द्वादश और त्रयोदश गुणस्थानोंमें सातावेदनीय कर्मका आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशरूपमें बन्ध नहीं होना चाहिए । दुसरे द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकर्मोंका तथा चारों अघातिकर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाना चाहिये । परन्तु जब ऐसा नहीं होता है तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि वहाँ आस्रव और बन्धका मूल कारण योग है व विद्यमान ज्ञानावरणादि उक्त तीनों घातिकर्मोंकी एवं चारों अघातिकर्मोकी निर्जरा निषेकक्रमसे ही होती है। त्रयोदय गुणस्थानमें केवली भगवान अघातीकर्मोकी समान स्थितिका निर्माण करनेके लिए जो समुद्घात करते हैं वह भी उनकी
इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्यामें निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके उपर्युक्त वचनके अंगभूत "सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदमें आये 'सुह' शब्दसे जीवकी क्रियावती शक्तिके अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना ही संगत है । भाववती शक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ व मोहनीय कर्मके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभुत शद्ध परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना संगत नहीं है।
यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जयधवलाके उक्त वचन के 'सुह-सुद्धपरिणामेहि पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दका अर्थ यदि जीवकी भाववती शक्तिके मोहनीय कर्म के यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें विकासको प्राप्त शुद्ध परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मके रूपमें स्वीकार किया जाये तो उस पदके अन्तर्गत "सूह" शब्दका अर्थ पूर्वोक्त प्रकार जीवकी भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनके रूपमें तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप वे परिणमन पूर्वोक्त प्रकार न तो कर्मोके आस्रव और बन्धके साक्षात् कारण होते हैं और न ही बद्ध कर्मोंके संवर और निर्जरणके ही साक्षात् कारण होते हैं । इसलिए उस 'सुह" शब्दका अर्थ यदि जोवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें स्वीकार किया जाये तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति तो कर्मोंके आस्रव और बन्धका ही कारण होती है । अतः उस "सुह" शब्दका अर्थ जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मके पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप अंशसे जहाँ कर्मोका आस्रव और बन्ध होता है वहीं उसके पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप अंशसे कर्मोका संवर और निर्जरण भी होता है । परन्तु ऐसा स्वीकार कर लेनेपर भी जीवकी भाववती शक्तिके स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप परिणमनको पूर्वोक्त प्रकार कर्मोके संवर और निर्जरणका कारण सिद्ध न होनेसे वहाँ "सुद्ध" शब्दका अर्थ कदापि नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार जयधवलाके "सुह-सुद्धपरिणामेहिं" पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दके निरर्थक होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतः उक्त "सुह-सुद्धपरिणामेहि" इस सम्पूर्ण पदका अर्थ जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही ग्राह्य हो सकता है।
यदि कहा जाये कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति उसकी भाववतीशक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मके रूपमें परिणमन होनेपर ही होती है, इसलिए "सुह-सुद्धपरिणामेहिं" पदके अन्तर्गत “सुद्ध" शब्द निरर्थक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org