Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१७८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
निश्चयधर्मरूप जीवदयाको उत्पत्ति भव्य जीवमें ही होती है, अभव्य जीवमें नहीं । तथा उस भव्यजीवमें उसकी उत्पत्ति मोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर शुद्ध स्वभावके रूपमें उत्तरोत्तर प्रकर्षको लेकर होती है। इसकी प्रतिक्रिया निम्न प्रकार है :
(क) अभव्य और भव्य दोनों प्रकारके जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकालसे अनन्तानुबन्धी आदि उक्त चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता आया है। दोनों प्रकारके जीवोंमें उस अदयारूप विभावपरिणममकी समाप्तिमें कारणभूत क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासकी योग्यता स्वभावतः विद्यमान हैं। भव्य जीवोंमें तो उस अदयारूप विभाव परिणतिकी समाप्तिमें अनिवार्यकारणभूत आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासकी योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है । इस तरह जिस भव्य जीवमें जब क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास हो जानेपर उक्त करणलब्धिका भी विकास हो जाता है तब सर्वप्रथम उस करणलब्धिके बलसे उस भव्य जीवमें मोहनीय कर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन प्रकृतियोंका व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें उसको उस भाववतो शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधमके रूपमें एक प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है।
(ख) इसके पश्चात् उस भव्य जीवमें यदि उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलसे उसमें चारित्रमोहनीय कर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायको नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर पंचमगणस्थानके प्रथम समयमें उसको उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें दूसरे प्रकारकी जीवदयारूप परिणमन होता है।
(ग) इसके भी पश्चात् उस भव्य जीवमें यदि आत्मोन्मुखता रूप करणलब्धिका और विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलसे उसमें चारित्र-मोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभुत निश्चयधर्मके रूपमें तीसरे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्तम गुणस्थानको प्राप्त जीव सतत सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे झूलेकी तरह झूलता रहता है।
(घ) उक्त प्रकार सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानोंमें झूलते हुये उस जीवमें यदि सप्तमगुणस्थानसे पूर्व ही दर्शनमोहनीय कर्मकी उक्त तीन और चारित्रमोहनीय कर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी उक्त चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम या क्षय हो चुका हो अथवा सप्तम गुणस्थानमें ही उनका उपशम या क्षय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानोंमें क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके रूपमें और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है और तब नवम गुणस्थानमें ही उस जीवमें चारित्रमोहनीय कर्मके उक्त द्वितीय और तृतीय भेदरूप अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी क्रोध प्रकृतियों के साथ चारित्रमोहनीयकर्मके ही चतुर्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org