Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१७६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य
वह यथायोग्य कर्मोके संवर और निर्जरणमें वृद्धि कर यथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्तिके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध करता है। इसी प्रकार आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय, चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्ती जीव यदि अशक्तिवश होनेवाली प्रवृत्तिका यथायोग्य सर्वदेश त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोके संवर और निर्जरणमें और भी वृद्धि करके यथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्तिके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध करता है । इसी तरह आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम या षष्ठ गुणस्थानवी जीद यदि अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जरणमें और भी वृद्धि करके क्रमशः सप्तम, अष्टम, नवम और दशम गुणस्थानोंमें पहुँचकर केवल आभ्यन्तर शुभ प्रवृत्तिके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध करता है। इसी तरह ऐसा दशम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तमें अपनी शुभ पुरुषार्थरूप प्रवृत्तिको भी समाप्त कर यथायोग्य आत्मोन्मुखताकी पूर्णताको प्राप्त होकर संवर और निर्जरणमें वृद्धि कर एकादश या द्वादश गुणस्थानमें और द्वादश गुणस्थानके पश्चात् त्रयोदश गुणस्थानमें केवल मानसिक, वाचनिक और कायिक योगप्रवृत्तिके आधारपर मात्र सातावेदनीय कर्मका केवल प्रकृति और प्रदेश बन्धके रूपमें आस्रव और बन्ध करने लग जाता है और त्रयोदश गुणस्थानवी जीवकी जब उक्त योगप्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है तो वह चतुर्दश गुणस्थानके प्रारम्भमें पूर्ण संवरको प्राप्त कर तथा अन्त समयमें शेष विद्यमान अघातिया कर्मोंका भी क्षयके रूपमें पूर्ण निर्जरण करके नोकर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध समाप्त कर सिद्ध पदवीको प्राप्त हो जाता है।
___ इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप जीवित-शरीरकी क्रियाके आधारसे अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप विभावरूप अधर्मभावको प्राप्त होता है और अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रियाके आधारसे वह अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप स्वभावरूप धर्मभावको प्राप्त होता है।
इस विवेचनके आधारसे उत्तरपक्ष यदि कदाचित् प्रकृत विषय सम्बन्धी आगमके अभिप्रायको समझनेकी चेष्टा करे, तो मुझे विश्वास है कि वह पूर्वपक्षकी इस मान्यताको नियमसे स्वीकार कर लेगा कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है ।
प्रश्नोत्तर ३ की सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?-त० च० पृ० ९३ ।
उत्तरपक्षका उत्तर-(क) इस प्रश्नमें यदि "धर्म" पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदयाकी परिगणना शुभपरिणामोंमें की गई है और शुभ परिणामको आगममें पुण्यभाव माना है।-त० च० पृ० ९३ ।
(ख) यदि इस प्रश्नमें 'धर्म' पदका अर्थ वीतराग परिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है, क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होनेके कारण उसका आस्रव और बन्धतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, संवर और निर्जरा तत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता।-त० च० पृ० ९३ । जीवदयाके प्रकार
(१) जीवदयाका एक प्रकार पुण्यभाव रूप है। इसे आगमके आधारपर उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष
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