Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १७५
आत्माकी उस भाववती शक्तिका वह परिणमन धर्मरूप होता है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
जीव द्रव्यमनके सहयोगसे शुभ-अशुभ संकल्पके रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है, वचनके सहयोगसे शुभ-अशुभ बोलनेके रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे
रूप आत्म-व्यापार करता है और शरीरके सहयोगसे शभ-अशभ हलन-चलनके रूपमें प्रवत्तिरूप या उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है। द्रव्यमन, वचन और शरीरके सहयोगसे होनेवाला जीवका उक्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप या उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापारका अपर नाम आत्म-पुरुषार्थ है और इसे ही जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनके रूपमें जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया कहते हैं ।
(३) जीवका संसार. शरीर और भोगोंके प्रति अथवा हिंसा, झठ, चोरी, भोग और संग्रह रूप पाँच पापोंके प्रति उक्त प्रकारका मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप आत्म-व्यापार अशुभ कहलाता है व उसका देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, अणव्रत, महाव्रत, समिति आदिके प्रति मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवत्तिरूप आत्मव्यापार शुभ कहलाता है। तथा उसका इन मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप आत्मव्यापारोंसे मन, वचन और कायगुप्तियोंके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्धआत्मव्यापार होता है।
(४) शरीरके अंग-भूत द्रव्य मन, वचन और शरीरके सहयोगसे होनेवाले उक्त तीनों प्रकारके आत्मव्यापारोंमेसे शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप दोनों प्रकारके आत्मव्यापारोंसे जीव यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मोंका बन्ध करता है व उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप आत्मव्यापारोंसे जीव उन कर्मोका संवर और निर्जरण करता है। इस तरह बद्धकर्मोके उदयसे जीवमें भाववती शक्तिके विभाव परिणामके रूपमें अधर्मभाव प्रगट होता है तथा बंधनेवाले कर्मोके बन्धमें रुकावटरूप संवर और बद्ध कर्मोके उपशम, क्षय और क्षयोपशमरूप निर्जरणसे जीवमें भाववती शक्तिके स्वभावपरिणमनके रूपमें धर्मभाव प्रगट होता है।
यहाँपर यह ज्ञातव्य है कि जब तक प्रथम गुणस्थानमें विद्यमान जीव केवल अशभ प्रवृत्ति करता है तब तक वह यथायोग्य कर्मोंका बन्ध ही करता है। तथा प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें विद्यमान जीव जो अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्ति करते हैं वे भी यथायोग्य कर्मोंका बन्ध ही करते हैं। इतना ही नहीं, यदि कदाचित् कोई मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य जीव आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्ति करने लगा हो तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है । इसके अतिरिक्त यदि कोई मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य जीव कदाचित् आसक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्तिके सर्वथा त्याग पूर्वक अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्याग कर देता है तथा यथावश्यक या किंचित अनिवार्य अशक्तिवश होनेवाली अशभ प्रवत्तिके साथ प्रधानतया शभ प्रवत्ति करने लगता है तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है । लेकिन कोई बिरला मिथ्यादृष्टि भव्य जीव या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आसक्तिवश होनेवाली अशभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागके आधारसे करणलब्धिके रूपमें आत्मोन्मुख हो जाता है तो वह यथायोग्य कर्मोका संवर और निर्जरण भी करने लगता है व अशक्तिवश होनेवाली अशभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्ति करता हुआ कर्मोंका आस्रव और बन्ध भी करता है। इसी प्रकार आशक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्तिके सर्वथा त्याग पूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय या चतुर्थ गुणस्थानवी जीव यदि अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका भी एक देश त्याग कर अपनी आत्मोन्मुखतामें वृद्धि कर लेता है तो
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