Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१७४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य
उत्तरपक्षके सरपर विमर्म-उत्तरपक्षने प्रश्नका जो उत्तर दिया है उससे उत्तरपक्षकी यह मान्यता ज्ञात होती है कि वह जीवित शरीरकी क्रियाको मात्र पुदगलद्रव्यकी पर्याय मानकर उसका अजीव तत्वों अन्तर्भाव करके उससे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेका निषेध करता है । उत्तरपक्षकी इस मान्यतामें पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा तो कुछ विरोध नही है, परन्तु आत्मामें होनेवाले धर्म
और अधर्मके प्रति पूर्वपक्ष द्वारा कारण रूपसे स्वीकृत शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियाकी अपेक्षा विरोध है । यदि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षको मान्य शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसको पुद्गल द्रव्यको पर्याय मानकर अजीव तत्त्वमें अन्तर्भूत करे तथा उससे आत्मामें धर्म और अधर्मको उत्पत्ति न माने तो उसको इस मान्यतासे पूर्वपक्ष सहमत नहीं है, क्योंकि चरणानुयोगका समस्त प्रतिपादन इस बातकी पुष्टि करता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया जीवित शरीरकी क्रिया है और पुद्गल द्रव्यकी पर्याय न होनेसे अजीव तत्त्वमें अन्तर्भत न होकर जीवकी पर्याय होनेसे जीव तत्त्वमें अन्तर्भूत होती है तथा उससे आत्मामें धर्म और अधम उत्पन्न होते हैं। उत्तरपक्षके समक्ष एक विचारणीय प्रश्न
उत्तरपक्ष यदि शरीरके सहयोगसे होने वाली जोवकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसे पुद्गल द्रव्यको पर्याय मानकर उसका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव करे तथा उसको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारण न माने तो उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मामें धर्म और अधर्मकी उत्पत्तिका आधार क्या है ? किन्तु पूर्वपक्षके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि वह शरीरके सहयोगसे होनेवालो जीवकी क्रियाको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारण रूपसे आधार मानता है।
यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि धर्म और अधर्मकी उत्पत्तिमें आत्माका पुरुषार्थ कारण है, तो वह पुरुषार्थ शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियासे भिन्न नहीं है। इसका विवेचन आगे किया जायेगा। इसके अलावा यदि वह यह कहे कि आत्मामें धर्म और अधर्म आत्माकी कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप नियतिके अनुसार होते हैं तो इस प्रकारको नियतिका निर्माण आत्माको नित्य उपादान शक्ति (स्वाभाविक योग्यता) के आधारपर शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप आत्मपुरुषार्थके बलपर ही होता है। इसका विशेष कथन प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किया जा चुका है और आगे भी प्रकरणानुसार किया जायेगा। प्रकृत विषयके सम्बन्धमें कतिपय आधारभूत सिद्धान्त
(१) धर्म और अधर्म दोनों जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन हैं और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रिया उसकी (जीवकी) क्रियावती शक्तिका परिणमन है । और जीवको क्रियावती शक्तिका यह प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियापरिणाम ही उसकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप धर्म और अधर्म में कारण होता है।
(२) प्रकृतमें 'जीवित शरीर' पदके अन्तर्गत 'शरीर' शब्दसे शरीरके अंगभत द्रव्यमन, वचन (बोलनेका स्थान मख) और शरीर इन तीनोंका ग्रहण विवक्षित है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिीके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्ममें जीवकी क्रियावती शक्तिका प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप जो क्रियारूप परिणाम कारण होता है वह शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन (मुख) और शरीर इन तीनोंमेंसे प्रत्येकके सहयोगसे अलग-अलग प्रकारका होता है तथा जीवकी क्रियावती शक्तिका वह क्रियापरिणाम यदि बाह्य पदार्थोंके प्रति प्रवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे आत्माकी उस भाववती शक्तिका वह परिणमन अधर्म रूप होता है और यदि उसी क्रियावती शक्तिका वह क्रिया परिणमन बाह्य पदार्थोंके प्रति प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे
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