Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १३९
चरमोत्तमदेहके धारक तथा असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य-तियंचोंको छोड़कर बाकीके जीवोंके उदयगत आयुकी ही उदीरणा संभव है । इस कथनसे यह बात निकलती है कि देवायु और नरकायुकी उदीरणा हो नहीं होती है तथा पूर्वकथनसे यह सिद्ध होता है कि देवायु और नरकायुकी भी उदीरणा होती है; इसलिये शास्त्रोंमें ही पूर्वापर विरोध आता है ?
उत्तर - शास्त्रों में उदीरणा दो तरहकी बतलायी है— एक तो अन्य निमित्तसे मरण हो जानेको उदीरणा कहते हैं, दूसरी स्वतः आत्माकी क्रियाविशेषसे उदयावली बाह्यद्रव्यको उदयावलीमें डाल देने को उदीरणा कहते हैं । ऐसी उदीरणा देवायु और नरकायुकी भी होती हैं, उदीरणामरण नहीं होता । आचार्य - कल्प पं० टोडरमलजी इस शंकाका निरास इस प्रकार करते हैं- " बहुरि उदीरणाशब्दका अर्थ जहाँ देवादिकके उदीरणा न कही तहाँ तो अन्य निमित्ततें मरण होय ताका नाम उदीरणा है । अर दश करणनिके कथनविर्षे उदीरणाकरण देवायुके भी कहा, तहाँ ऊपर के निषेकनिके द्रव्यको उदयावली विषे दीजिये, ताका नाम उदीरणा है - मोक्ष० प्रकाश, पुस्तकाकार, पु०-४२१ ।
इस प्रकार शास्त्र के दोनों प्रकारके कथनोंको आपेक्षिक कथन स्वीकार करनेसे पूर्वापर विरोधको शंका नहीं रहती है ।
कर्मोकी उदीरणा अपकर्षणपूर्वक ही होती है । जबतक कर्मके द्रव्यको स्थितिका अपकर्षण नहीं होगा तबतक उस द्रव्यका उदयावली में प्रक्षेप नहीं हो सकता है, कारण कि उदयावलीमें प्रक्षेपका मतलब ही यह है कि जो कर्मद्रव्य अधिक समयमें उदय आने योग्य था वह अब उदयावलीमें ही उदय आकर नष्ट हो जायगा । इसी अभिप्राय से कर्मकाण्डकी संस्कृत टीकाकारने उदीरणाके लक्षण में "अपकर्षणवशात्" यह पद दिया है।
इस कथन से भुज्यमान देवायु और नरकायुमें अपकर्षणकरण होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है । "हाणी ओक्कट्टणं णाम", "उक्कट्टणं हवे वड्ढी" || गो० कर्म० गा० ४३८ । सं० टी० -- स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणम् स्थित्यनुभागयोवृधिरुत्कर्षणम् ॥
hi स्थिति और अनुभागको घटा देना अपकर्षण है और बढ़ा देना उत्कर्षण है । शुभ प्रकृतियोंके स्थिति और अनुभाग में कमी संक्लेशपरिणामोंसे होती है और वृद्धि विशुद्ध परिणामोंसे होती है । अशुभ प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में हानि विशुद्ध परिणामोंसे होती है और वृद्धि संक्लेशपरिणामोंसे होती है । देवायु शुभप्रकृति है, इसलिये उसके स्थिति और अनुभाग में कमी संक्लेशपरिणामोंसे होगी और वृद्धि विशुद्ध परिणामोंसे होगी । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब देवोंके संक्लेशता होनेसे देवायुका अपकर्षण हो सकता है तो विशुद्धता होनेसे देवायुका उत्कर्षण होना भी न्यायसंगत है । इसीप्रकार नरकायु अशुभ प्रकृति है, इसलिये उसके स्थिति और अनुभाग में कभी विशुद्ध परिणामोंसे होगी और वृद्धि संक्लेश परिणामोंसे होगी; इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब नारकियोंके विशुद्धता होनेसे नरकायुका अपकर्षण हो सकता है तो संक्लेशता होने से नरकायुका उत्कर्षण होना भी न्यायसंगत है । इस प्रकार भुज्यमान देवायु और नरकायुमें भी अपकर्षण और उत्कर्ष सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार भुज्यमान तिर्यगायु और मनुष्या युमें भी अपकर्षणकरणको तरह उत्कर्षण करण स्वीकार करना चाहिये ।
शंका -- किसी भी कर्म प्रकृतिका उत्कर्षण उसकी बन्धव्युच्छित्तिके पहिले तक ही होता है ।
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