Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १३७
का निषेक कभी-कभी नीचगोत्रका निषेक बनकर खिरता है और इसी तरह नीचगोत्रका निषेक कभी-कभी उच्चगोत्रका निषेक बनकर खिरता है । फल देकर और फल नहीं देकर खिरनेका अर्थ यह है कि यदि खिरते समय उच्चगोत्रके निषेकको नोकर्मकी सहायता प्राप्त हो जाती है तो उच्चगोत्रका निषेक तो फल देकर खिरता है और उस समय नीचगोत्रका निषेक बिना फल दिये ही खिर जाता है। इसी तरह यदि खिरते समय नीचगोत्रके निषेकको नोकर्मकी सहायता प्राप्त हो जाती है तो नीचगोत्रका निषेक तो फल देकर खिरता है और उच्चगोत्रका निषेक बिना फल दिये ही खिर जाता है। यही व्यवस्था साता और असाता आदि परस्पर विरोधी सभी कर्मप्रकृतियोंके निषकोंके खिरने में लागू होती है।
कर्मसिद्धान्तके इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवको एक ही भवमें जिस प्रकार अपनेअपने अनुकूल नोकर्मकी सहायतासे कभी सातावेदनीय और कभी असातावेदनीय कर्म अपना फल देते रहते हैं। इसी प्रकार जीवको एक ही भवमें अपने-अपने अनुकूल नोकर्मको सहायतासे कभी उच्चगोत्र और कभी नीचगोत्र कर्म भी अपना-अपना फल दे सकते हैं । चूँकि नारकी, तिर्यंच, देव इन तीनों गतियोंमें तथा भोगभूमिमें कहीं उच्चगोत्रका और कहीं नीचगोत्रका हो नोकर्म नियमसे रहता है, अतः नारकियों, तिर्यंचों, देवों और भोगभूमिके तिर्यचों तथा मनुष्योंका गोत्रपरिवर्तन नहीं होता है। परन्तु कर्मभूमिज मनुष्योंके जीवनमें पूर्वोक्त प्रकार जीवनवृत्ति बदलनेकी संभावनाके आधारपर उच्चगोत्र और नीचगोत्र दोनोंके नोकर्ममें परिवर्तनकी संभावना बनी रहती है, अतः कर्मभूमिज मनुष्योंके गोत्रपरिवर्तन स्वीकार किया गया है।
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