Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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गोत्रकर्मके विषयमें मेरा चिन्तन
८ अगस्त सन १९५७ के जैन संदेश में श्रीब्रह्मचारी पं० रतनचंदजी सहारनपुर द्वारा परिचालित "शंका-समाधान" प्रकरणमें निम्न प्रकार शंका और उसका समाधान किया गया था।
"शंका१-नीच-उच्चगोत्र जन्मसे है या कर्मसे? क्या बौद्धधर्ममें दीक्षित शूद्र ५० साल पश्चात उच्चगोत्री न माने जायेंगे ? अव्रत रहते हुए भी क्या गोत्र बदल सकता है ?
समाधान-षट्खण्डागम पुस्तक १३, पृष्ठ ३८८ पर उच्चगोत्रके कार्य के विषयमें यह शंका उठाई गयी है कि उच्चगोत्रका कार्य राज्यादि संपदाकी प्राप्ति, महाव्रतों, अणुव्रतों तथा सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति, इक्ष्वाकू कूल आदिमें उत्पत्ति नहीं है क्योंकि इनसे अन्यत्र जीवमें भी उच्चगोत्रका उदय पाया जाता है। इसलिये उच्चगोत्र निष्फल है, उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता?
इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन स्वामीने लिखा है (१) उच्चगोत्र न माननेसे जिन वचन (आगम) से विरोध आता है, (२) केवलज्ञानद्वारा विषय किये गये सभी अर्थोंमें छद्मस्योंके ज्ञान प्रवत्त भी नहीं होते हैं। यदि छद्मस्थोंको कोई अर्थ उपलब्ध नहीं होते हैं तो इससे जिनवचनोंको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। (३) गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात भी नहीं है क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है. साध आचार वालोंके साथ जिन्होंने संबन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इसप्रकारके ज्ञान और वचन व्यवहारके निमित्त हैं-उन पुरुषोंकी परम्पराको उच्चगोत्र कहा जाता है तथा उनमें उत्पत्तिका कारणभत कर्म भी उच्चगोत्र है।
षटखण्डागमकी धवलाटीकाके इस कथनसे यह बात स्पष्ट है कि हमको उच्चगोत्रके विषयमें विशेष जानकारी नहीं है। इसपर भी जन्मसे उच्चगोत्र कहा है तथा कहींपर कर्मसे भी। जैन चक्रवर्तीके संबंधी म्लेच्छखण्डी जो चक्रवर्तीके साथ आर्यखण्डमें आकर दीक्षित हो गये थे वे कर्मसे उच्चगोत्र वाले हैं। बौद्धधर्ममें दीक्षित शूद्र ५० साल पश्चात् उच्चगोत्री नहीं हो सकता। अव्रत रहते हुए गोत्र-परिवर्तन नहीं हो सकता, ऐसा समझमें आता है ।"
मैंने जो शंका-समाधानका यह अवतरण यहाँपर दिया है, उसका कारण यह है कि पाठक प्रत्येक बातको ठीक तरहसे समझ सकें। मेरा सामान्यरूपसे ख्याल यह है कि विद्वान वस्तुतत्त्वके निर्णयमें आगमकी अपेक्षा तर्कसे काम लें और उसका आगमके साथ केवल आवश्यक समन्वय मात्रका ध्यान रखें, तो संस्कृति संबंधी बहुत-सी गुत्थियाँ अनायास सुलझ जावेंगी, इस तरह विद्वान् संस्कृति और समाजके महान् उपकारक सिद्ध होंगे।
कर्मसंबंधी गुत्थी भी बड़ी जटिल है। उसके एक अंश गोत्रके विषयमें यहाँपर विचार किया जा रहा है। समयानुसार अन्तराय आदि दूसरे अंशोंपर भी विचार किया जायगा।
गोत्रकर्मपर विचार करनेसे पहले मैं पाठकोंको एक बात सुझाना चाहता हूँ कि फल देनेमें कर्मके लिये नोकर्म सहायता प्रदान करता है । आगममें भी नोकर्मको कर्मका सहायक कर्म माना गया है, इसका अभिप्राय यही है कि कर्म जीवको अपना फल देने में नोकर्मके साहाय्यकी अपेक्षा रखता है।
यह बात इतनी स्पष्ट होते हुए भी आधुनिक और बहुतसे भूतकालीन विद्वानोंने इस सिद्धान्तको मान्यता दे रखी है कि कर्म और नोकर्ममें भी कार्य-कारणभाव है अर्थात् जीवको कर्मफल भोगनेमें नोकर्मका
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