Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : १०५
अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी क्रोध-प्रकृतियोंके साथ चारित्रमोहनीय कर्मके चतुर्थ भेद संज्वलन कषायकी क्रोध-प्रकृतिका भी उपशम था क्षय होने पर उस जीवकी उस भाववती शक्तिका शद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूप चौथे प्रकारका जीवदयारूप परिणमन होता है।
इस विवेचनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंको भाववती शक्तिका अनादिकालसे चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोधप्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता आया है, परन्तु जब जिस भव्यजीवकी उस भाववती शक्तिका वह अदयारूप विभाव परिणमन यथास्थान उस-उस क्रोध-प्रकृतिका यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर यथायोग्यरूपमें समाप्त होता जाता है, तब उसके बलसे उस जीवकी उस भाववतीशक्तिका उत्तरोत्तर विशेषता लिए हुए शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्मके रूपमें दयारूप परिणमन होता जाता है। इतना अवश्य है कि उन क्रोध-प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्यरूपमें होने वाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम उस भव्य जीवमें क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों के विकासपूर्वक आत्मोन्मखतारूप करणलब्धिका विकास होने पर ही होता है। व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण
भव्य जीवमें उपयुक्त पाँचों लब्धियोंका विकास तब होता है जब वह जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तियोंको क्रियावती शक्तिके ही परिणमनस्वरूप मानसिक वाचनिक और कायिक अदयारूप संकल्पीपापमय अशभ प्रवत्तियोंसे म वचनगप्ति और कायगप्तिके रूपमें निवत्तिपूर्व करने लगता है। इन अदयारूप संकल्पीपापमय अशभ प्रवृत्तियोंसे निवत्तिपूर्वक की जानेवाली दयारूप पण्यमय शभ प्रवत्तिका नाम ही व्यवहारधर्मरूप दया है तरह यह निर्णीत है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदयाके बलपर ही भव्यजीवमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीव-दयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धियोंका विकास होता है। इस तरह निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें व्यवहारधर्मरूप जीवदया कारण सिद्ध हो जाती है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कोई-कोई अभव्यजीव भी व्यवहारधर्मरूप दयाको अंगीकार करके अपनेमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है। इतना अवश्य है कि उसकी स्वभावभूत अभव्यताके कारण उसमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास नहीं होता है। इस तरह उसमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीव दयाका विकास भी नहीं होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भव्यजीवमें उक्त क्रोध-प्रकृतियोंका यथासम्भवरूपमें होने वाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम . यद्यपि आत्मोन्मुखतारूप कारणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है, परन्तु उसमें उस कारणलब्धिका विकास क्रमशः क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चारों लब्धियोंका विकास होनेपर ही होता है। अतः इन चारों लब्धियोंको भो उक्त क्रोध-प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण माना गया है। जीवका भाववतो और क्रियावती शक्तियों के सामान्य परिणमनोंका विवेचन
जीव की भाववती और क्रियावती--इन दोनों शक्तियोंको आगममें उनके स्वतःसिद्ध स्वभाव के रूपमें बतलाया गया है। इनमेंसे भाववतीशक्तिके परिणमन एक प्रकारसे तो मोहनीयकर्मके उदयमें विभावरूप, व उसके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें शुद्धस्वभावरूप होते हैं तथा दूसरे प्रकारसे हृदयके सहारेपर तत्त्व
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