Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१२२ : सरस्वनो-धरमपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
यदि ऐसा न माना जावे तो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती अभव्य जीवोंको मिथ्याचारित्ररूप क्रियाव्यापारके अभाव में जो क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्यलब्धियोंकी प्राप्ति होती है एवं भव्य जीवोंको उक्त चार लब्धियोंके साथ जो करणलब्धिकी प्राप्ति होती है वह सब नहीं हो सकेगी। इसका परिणाम यह होगा कि मिथ्यादष्टिगणस्थानवर्ती संज्ञीपंचेन्द्रिय भव्य जीव उस करणलब्धिके आधारपर जो दर्शनमोहनीयकर्मकी तीन और चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी कषायको चार इसप्रकार सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम करता है, अथवा उक्त ७ प्रकृतियोंके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके साथ जो अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका क्षयोपशम करता है अथवा इसके भी साथ जो प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका क्षयोपशम करता है यह सब वह नहीं कर सकेगा । अतएव मानना पड़ता है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके संजीपंचेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादष्टिगुणस्थानमें रहते हए भी अनुकूल निमित्तोंका योग मिलनेपर व्यवहारसम्यग्दृष्टि और व्यवहारसम्यग्ज्ञानी होकर जब मिथ्याचारित्ररूप क्रियाव्यापार नहीं करते हैं तो वे यथायोग्य अविरत या देशविरत या महाव्रती हो जाते हैं एवं इस आधारपर ही अभव्य जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्यलब्धियोंको प्राप्त कर लेते हैं तथा भव्य जीव उक्त लब्धियोंके साथ करणलब्धिको भी प्राप्त कर लेते हैं।
समयसारकी गाथा २७५ से भी यही ध्वनित होता है कि अभव्य जीव भी धर्मका श्रद्धान करता है, उसका ज्ञान करता है, उसमें रुचि करता है और उसको अपनाता भी है। परन्तु उसकी अभव्यताके कारण वह भेदविज्ञानो नहीं हो सकता । अतएव उससे वह सांसारिक भोग ही पाता है। यद्यपि वह यह सब मोक्ष पानेकी भावनासे ही करता है, परन्तु वह जब भेदविज्ञानी नहीं होता, तो मोक्षमार्गी नहीं बन सकता।
इस विवेचनसे यही समझमें आता है कि अविरतिरूप क्रियाव्यापार करनेवाले व्यवहारसम्यग्दृष्टि और व्यवहारसम्यग्ज्ञानी प्रथम गुणस्थानवर्ती अभव्य जीव तथा अविरतिरूप क्रियाव्यापार करनेवाले प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान तकके भव्य जीव जो कर्मबन्ध करते हैं वह वे अविरतिरूप क्रिया व्यापारके आधारपर ही करते हैं तथा प्रथम गुणस्थान तकके वे ही भव्य जीव और प्रथमगुणस्थानसे लेकर पंचमगुणस्थान तकके वे ही भव्यजीव देशविरत होनेपर जो कर्मबन्ध करते हैं वह वे शेष एकदेशअविरतिरूप क्रियाव्यापारके आधार पर करते हैं एवं प्रथमगुणस्थानवर्ती वे ही अभव्य जीव और प्रथम गुणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थान तकके वे ही भव्य जीव महाव्रती हो जानेपर जो कर्मबन्ध करते हैं वह वे २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप क्रियाव्यापारके आधारपर करते हैं । प्रथमगणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थान पर्यन्तके जीवोंमेंसे द्वितीय और तृतीयगणस्थानवी जीवोंमें जो विशेषताएँ आगममें प्रतिपादित की गई है वे करणानुयोगकी अपेक्षासे ही है, चरणानुयोगकी अपेक्षासे नहीं, जबकि कर्मबन्धको व्यवस्था चरणानुयोगको प्रक्रियापर हो आधारित है, क्योंकि जीवोंको जो कर्मबन्ध होता है वह क्रियाशील नोकर्मभूत मन, वचन और कायके अवलम्बनसे जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप क्रियाव्यापारके आधारपर ही होता है। इतना अवश्य है कि वह कर्मबन्ध मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक मिथ्याचारित्ररूप क्रियाव्यापारके आधारपर भी होता है तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक अविरतिरूप या क्रियाव्यापारके आधारपर एकदेश अविरतिरूप क्रियाव्यापारके आधारपर अथवा २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप क्रियाव्यापारके आधारपर होता है। वे अविरतिरूप या एकदेशअविरतिरूप या २८ मूलगुणोंमें प्रवत्तिरूप सभी क्रियाव्यापार नियमसे व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक ही जोवोंमें पाये जाते है और ये सभी क्रियाव्यापार क्रियाशील नोकर्मभूत मन, वचन और कायके आधारपर होनेवाले जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप ही हैं।
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